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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ४१ ॥ अधिगम काहेरौं करिये ? जो अन्यप्रमाणनयनितें करिये तो अनवस्था दूषण होयगा । बहुरि आपही करिये तो सर्वही पदार्थनिका आपहीत होगा, प्रमाणनय निष्फल हौंहिगे ॥ ताका उत्तर - जो, प्रमाणनयनिका अधिगम अभ्यास अपेक्षातौ आपहीतें कह्या है । अर विना अभ्यास अपेक्षा परतें कह्या है । तातें दोष नाही ॥ बहुरि प्रश्न---जो, प्रमाण तो अंशीकू ग्रहण करै अरु नय अंशकू ग्रहण करै सो अंशनितें जुदा पदार्थ तौ अंशी भासता नाही । अंशनिके समुदायविर्षे अंशीकी कल्पना है । एहु कल्पना है सो असत्यार्थ है । ताका उत्तर- प्रथम तो प्रत्यक्षबुद्धिविर्षे अंशी स्थूल स्थिर एक साक्षात् प्रतिभासै है, ताकू कल्पित कैसै कहिये ? बहुरि जो कल्पित होय तो एककल्पनाते | द्वितीय कल्पना होते ताका सद्भाव इंद्रियगोचर कैसे रहै ? बहुरि कल्पितकै अर्थि क्रियाशक्ति काहेरौं | होय ? बहुरि कल्पित प्रत्यक्ष ज्ञानौं स्पष्ट कैसे भासै ? तातें अंशनिका समुदायरूप अंशी सत्यार्थ है | कल्पित नाही । अंशअंशिविर्षे कथंचित् भेद है कथंचित अभेद है । ते सर्वथा भेदही तथा अभेदही मान है तिनिकी मानिने दूषण आये है। पादनिकै दूषण नाही । इहां उदाहरण- जैसें एक | मनुष्यजीव नाम पस्तु; ताव देहाय मत ललाट, कान, नांक, नेत्र, मुख, होठ, गला, - कांधा, भुजा, हस्त, अंगुली, छाती, उदर, नाभी, नितंब, लिंग, जांघ, गोडे, पीडी, टळूण्या, | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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