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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५७१ ॥ ___ याका अर्थ-- पांच व्रत अर सात शील एक सल्लेखना इनविर्षे पांचपांच अतीचार अनुक्रमतें जानने। इहां व्रतशीलका द्वंद्वसमास करना। इहां तर्क कहै हैं, शीलका ग्रहण अनर्थक है । व्रतग्रहणहीते शीलका ग्रहण होय है। जातें शीलभी व्रतही है। आचार्य कहें हैं, अनर्थक नाही है । इहां विशेष जनावनेके अर्थि शीलका ग्रहण है। ए शील हैं ते व्रतनिकी रक्षाके अर्थि हैं ऐसा जान्या जाय है । यातें दिग्विरत्यादिक इहां शीलके ग्रहणकरि जानने । बहुरि अगारीके अधिकारतें ऐसा जानना, जो, ए पांचपांच अतीचार कहियेगा ते अगारी गृहस्थ श्रावकके व्रतशीलनिविर्षे हैं सोही कहै हैं। तहां प्रथमही आदिका अहिंसा नामा अणुव्रतका सूत्र कहै हैं ॥बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥ २५॥ ___याका अर्थ-बंध वध छेद अतिभार लादणा अन्नपानका रोकना ए पांच अतीचार अहिंसाअणुव्रतके हैं। तहां प्राणीनिका मनोवांछित गमन करने कू रोकना बांधना सो तौ बंध | कहिये । बहुरि लाठी चावक वेतकरि घात करना चोट देना सो वध कहिये यामें प्राणव्यपरोपण न लेना । जातें यह पहली हिंसाहीमें कह्या है । बहुरि कान नाक आदिक अंगउपांगका छेदना, || सो छेद कहिये । बहुरि न्याय वोझुतें अधिका लादि चलावना, सो अतिभारारोपण कहिये । | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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