SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५५ ॥ है, ताका विशेषण होय है ऐसें जानना ॥ आगें ऐसें व्रतीके भेद जाननेकू सूत्र कहें हैं ॥ अगा-नगारश्च ॥ १९॥ याका अर्थ-- एक अगारी कहिये गृहस्थ दूजा अनगार कहिये मुनि ऐसे व्रतीके दोय भेद हैं । तहां वसनेके अर्थि पुरुष जाकों अंगीकार करै सो अगार कहिये ताकू वेश्म मंदिर घरभी कहिये, सो जाकै होय सो अगारी कहिये । बहुरि जाकै अगार न होय सो अनगार कहिये । ऐसें | दोयप्रकारके व्रती हैं। एक अगारी दूसरा अनगार । इहां तर्क, जो, ऐसें तो विपर्ययकीभी प्राप्ति आवै है । शन्यागार देवमंदिर आदिकेविर्षे आवास करते जे मनि तिनकै अगारीपणा आया। बहुरि जो विषयतृष्णातें निवृत्त नाहीं भया है, ऐसा गृहस्थ सो कोई कारणनै वनमें ज्याय बस्या ताकै अनगारपणा आया । तहां आचार्य कहै हैं, यह दोष इहां नाहीं आवै है । इहां भाव अगारकी विवक्षा है । चारित्रमोहके उदयतें अगार जो घर ताके संबंधप्रति जो अनिवृत्ति परिणाम है सो भावअगार है । सो ऐसा जाकै भावअगार होय सो वनमें वसता होय तौऊ अगारीही कहिये । || अर घरमें वसै ते अगारीही हैं । बहुरि भावअगारका जाके अभाव है सो अनगार कहिये है ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy