SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४८ ॥ निकूं पीडाकारी वचन होय, सो अप्रशस्त है । जिस वचनका वस्तु विषय विद्यमान होऊ अथवा विद्यमान मति होऊ, जहां हिंसा होय, सो सर्व अनृत कहिये है । सो पहलें ऐसा कह्या था, जो, अन्य व्रत हैं ते अहिंसात्रतकी रक्षाके अर्थ हैं । तातैं इहां जो हिंसाका कहनेवाला होये सो वचन अनृत है, ऐसा निश्चय करना । सो सर्वथा निषेधकाही अर्थ लीजिये तौ शून्यका प्रसंग आता युक्त नाहीं । बहुरि सर्वथा विपरीत अर्थ लीजिये तौ वस्तुका स्वरूप अन्यथा कहै हैं, ताहीका प्रसंग होइ । कोई सत्यवचन ऐसा है, जाकरि प्राणीनिकूं पीडा होय है, सो नहीं है । तातें अप्रशस्त अर्थ में दोऊ आय गये । झूठ कहनाभी अनृत है । बहुरि सांच कहै अर जातें प्राणीनिकूं पीडा होय हिंसा होय सोभी अनृत है । ऐसा भावार्थ जानना || आगे पूछें अनृतके अनंतर कह्या जो स्तेय, ताका कहा लक्षण है? ऐसें पूछें सूत्र कहै हैं॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥ १५ ॥ याका अर्थ - अदत्त कहिये विनादिया वस्तु धनादिक, ताका आदान कहिये लेना, सो स्तेय है । इहां आदान नाम ग्रहणका है, जो अदत्त कहिये विनादियेका ग्रहण, सो अदत्तादान है । इहां तर्क, जो, ऐसें है तो कर्मके र्वगणा तथा नोकर्मके वर्गणा हैं ते काऊने दिये नाहीं, For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy