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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । सप्तम अध्याय ॥ पान ५४३ ।। स्तुति वैयावृत्य आदिकरि गुणाधिकविर्षे प्रमोदभावना भावनी। मोहकर्मके मारे कुज्ञानसहित, विषयअमिकरि दग्ध, हिताहितमें समझे नाही, अनेकदुःखनिकरि पीडे, दीन, कृपण, अनाथ, बालक, वृध्द, क्लिश्यमानविर्षे करुणा भावनी । मिथ्यात्वकरि खोटे हठयाही अविनेयनिविर्षे मध्यस्थभावना करणी । ऐसें भावना भावनेवालेके अहिंसादिकव्रत हैं ते पूर्ण होय हैं । आगे फेरिभी भावना कहनेके अर्थि सूत्र कहै हैं ॥जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२॥ याका अर्थ-जगत् कहिये संसार अर देह इनका स्वभावकी भावना करनी, संवेगवैराग्यके अर्थि । तहां प्रथमही जगतका स्वभाव, जो, यह लोक है सो अनादिनिधन वेत्रासन छलरी मृदंगसारिखा आकाररूप है । ताविर्षे जीव अनादिसंसारविर्षे अनंतकाल नानायोनिविर्षे निरंतर दुःख भोगवता संता भ्रमण करै है। तहां निश्चित किछभी नाहीं है। जीवित है सो जलके बुदेबुदेसारिखा है, तस्त विलाय जाय है। भोगसंपदा है ते वीजली वादलके विकारसारिखे चंचल हैं। इत्यादि ऐसें जगत्का स्वभाव चिंतवन करने” संसार” संवेग होय है, भय लागै है । बहुरि कायका का स्वभाव अनित्य है, दुःखका कारण है, साररहित है, अपवित्र है, इत्यादि ऐसे चिंतवने” विषय | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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