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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१४ ॥
. बहुरि श्रेणिक राजा पूर्वे मोटा अपराध सप्तम नरकका आयु बंधा था, सो आयुबंध भये पीछे पलटै नाहीं, ताः सम्यक्त्व भये पीछे ताके माहात्म्यतें बव्हायुका अपकर्षण करि स्थिति घाई | प्रथमपृथ्वीके पहले पाथडे चौरासी हजार वर्षकी आयु तै उएज्या सो आयुबंधके निमित्ततें अंतसमय अप्रत्याख्यानावरणका ऐसा तीव्रस्थानक उदय आया, जो, अपघातकरि मरण भया, तातें तहां उपज्या । सो पूर्व मिथ्यात्वमें आयु न बंधै ताकै तौ मनुष्यतिर्यंचकै कल्पवासी देवहीकी आयुका आश्रव होय है ऐसा अर्थ जानना ॥
आगें, आयुकर्मकै अनंतर रह्या जो नामकर्म, ताका आश्रवकी विधि कहनी, तहां अशुभनामकर्मके आश्रव जाननेके अर्थि सूत्र कहै हैं
- योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ याका अर्थ- मनवचनकायके योगनिकी वक्रता कहिये कुटिलता बहुरि विसंवाद कहिये अन्यकं अन्यथा प्रवर्तावना ए दोऊ अशभनामके आश्रवके कारण हैं। तहां योग तीनिप्रकार तौ पहले कह्या सोही हैं, तिनकी वक्रता कहिये कुटिलता मनमें कछू और विचारणा, पीछे परकू | ठगनेके अर्थि वचनते कळू और कहना, बहुरि कायतें कछू और क्रिया करणी, जाकरि पैला ठिगाय |
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