________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचमिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०८ ॥
शिलाभेदसदृश क्रोध, तीव्रलोभविर्षे अनुरागपणां, अनुकंपारहित परिणाम , परकै परिताप उपजावनेहीके भाव, वधवंधनका अभिप्राय, प्राणी भूत जीव सत्त्व इनका निरंतर घातहीके परिणाम , ऐसाही असत्यवचन, कुशल, चोरीका अभिप्राय, दृढ वैर, परके उपकारतें विमुख परिणाम , बहुरि देवगुरुशास्त्रका भेदकरि बुद्धिकल्पित मत चलावना इत्यादि जानना ॥ __आगें, नारकआयुका आश्रव तौ कह्या अब तिर्यंचयोनिका आश्रव कहना, ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥माया तैर्यग्योनस्य ॥ १६॥ याका अर्थ- माया कहिये कुटिलपरिणाम सो तिर्यंचयोनिका आश्रय है। तहां चारित्रमोहकर्मका विशेषका उदयतें प्रगट हवा आत्माका कुटिलभाव सो माया है या निकृतिभी कहिये, सो यह तिर्यचयोनिका आश्रव जानना। याका विस्तार- मिथ्यात्वसहित धर्मका उपदेश देना, शीलरहितपणां: परकू ठगनेके विर्षे प्रीतिरूप परिणाम, नीलकापोतलेश्या, आर्तध्यानकरि मरना इत्यादिक जानना ।।
आगें, तिर्यंचयोनिका आयुका आश्रव कह्या अब मनुष्यआयुका आश्रवका कारण कहा है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
For Private and Personal Use Only