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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयंचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०२ ॥ बहुरि अहिंसादिक व्रत जिनकें होय ते व्रती कहिये, ते घरके त्यागी तौ मुनि बहुरि घरहीमें अणुव्रत पालें ते श्रावक । बहुरि जो परके उपकारविर्षे आर्दितचित्त पैलाकी डाकूं अपनेविषै भई जैसें माननेवाले पुरुषकें करुणाभाव होय, सो अनुकंपा कहिये । जो प्राणिमात्रविषै तथा व्रतीनिविषै अनुकंपा होय सो भूतवत्यनुकंपा कहिये । बहुरि परके उपकारकी बुद्धिकर अपना धनादिक देना सो दान है । बहुरि संसारके कारण जे द्रव्यभावकर्म तिनके अभाव करनेविषै उद्यमी अर जिनके चित्तमें संसार के कारणकी निवृत्ति करनेका राग ते सराग कहिये, बहुरि प्राणी तथा इन्द्रियनि विषै अशुभप्रवृत्तिका त्याग सो संयम कहिये, सो पूर्वोक्तसरागीनिका संयम सो सरागसंयम कहिये । अथवा रागमहित संयम सो सरागसंयम ह ॥ इहां आदिशब्दकरि संयमासंयम अकामनिर्जरा बालतप लेणे । बहुरि योग कहिये समाधि सम्यक् चित्त लगावणा । भावार्थ - प्राणिमात्र तथा व्रतीनिविषै तो करुणाभाव बहुरि दान बहुरि सरागसंयमादिक इनकेविषै तौ चित्त राखणा । बहुरि क्रोधादिपरिणामका अभाव सो क्षान्ति कहिये क्षमा है । बहुरि लोभके प्रकार जीवनेका लोभ, नीरोग रहनेका लोभ, इन्द्रिय वणी रहनेका लोभ, उपकरणवस्तुका लोभ ए हैं, तथा अपना द्रव्य न देना, परका द्रव्य लेणां, चोरिभी लेणा, पैलाकी For Private and Personal Use Only भ
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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