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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०० ॥ | पापबंध नाहीं होय हैं । इहां उक्तं च दोय श्लोक हैं, तिनका अर्थ कहै हैं- जैसे रोगीका इलाज करतें वाकै सुख होऊ तथा दुःख होऊ ते सुखदुःख तिस इलाजके कारण नाही देखिये है, रोग गमावनेका तौ इलाज सामान्य है; तैसैं संसारतें छूटनेकू मोक्षका साधनकेविर्षे सुख होऊ तथा दुःख होऊ ते दोऊही मोक्षसाधनविर्षे कारण नाहीं हैं । भावार्थ- जैसे वैद्यका अभिप्राय रोगीकू नीरोग करनेका है, तैसें संसारदुःख मेटि मोक्ष प्राप्त होनेका अभिप्रायवालेकै सुखदुःख होना प्रधान नाहीं । तातें तिनके दुःखके कारण होतेंभी असाताका कारण नाहीं है । इहां दुःखके समानजातीय भाव अन्यभी उपलक्षणतें जानने । ने कौन सो कहिये हैं । अशुभप्रयोगकरि परकू पापविर्षे प्रेरणा , परपरिवाद कहिये परका अपवाद करना, | पैशुन्य कहिये परतें अदेखसाभावकरि खोटी कहना, चुगली खाणी, परकी करुणा न करनी, परके परिताप कहिये तीव्रपीडा उपजावनी, अंग उपांगका छेदन करना, मर्मकी ज्यायगां भेदन विदारण करना, परकू ताडन करना, परक त्रास उपजावना, परका तिरस्कार करना, परकू भुलसना दडावना, परका अंग छोलना, काटना, श्वासनिरोध करना, बांधना, रोकना, मसलना, | परकू बसमै राखना, स्वच्छंद रहने न देना, परळू वाहना, वोझु आदि दे चलावना, परकू For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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