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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४९८ ॥ ॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य ॥ ११॥ ___याका अर्थ-- दुःख शोक ताप आक्रंदन वध परिदेवन एते आपकै तथा परकै तथा दोऊकै | करै करावै ते असातावेदनीयकर्मके आश्रवकू कारण हैं । तहां पीडारूप परिणाम सो तौ दुःख है । | अपना उपकारी इष्टवस्तुका संबंधका विच्छेद होते खेदसहित निराशपरिणाम होय, सो शोक है । कोई निंद्यकार्य करनेतें अपना अपवाद होय तब मन मैला होय तिसका पश्चात्ताप बहुत करना, सो ताप है । कोई निमित्ततें परिताप भया तातें विलापकरि अश्रुपातसहित प्रगट पुकारकरि रोवना, सो आक्रंदन है। आयु इन्द्रिय बल प्राणनिका वियोग करना, सो वध है। सक्लेशपरिणामकरि ऐसा रोवना, जामें अपने तथा परके उपकार करावनेकी तथा करनेकी. वांछा होय जाके सुणे पैलाके अनुकंपा करुणा उपजै, सो परिदेवन है ॥ इहां कोई कहै, जो, शोक आदि तौ दःखकेही विशेष हैं; तातें एक दःखही ग्रहण करना। ताकू कहिये, यह तो सत्य है, दुःखमें सारेही आय जाय हैं तथापि केई विशेष कहनेकरि दुःखकी जातिका जनावना होय है । जैसे गऊ ऐसा कहतें ताके विशेष न जानिये ताके जनावनेकू खाडी मूडी काली धौली इत्यादिक कहिये है; तैसें दुःखसंबंधी आश्रवके असंख्यातलोकप्रमाण भेद हैं, For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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