SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥सर्वार्थसिद्धिवचमिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४७१ ॥ सो आकाशविर्षे क्रिया नाही, तिनके द्रव्यपणा न ठहरै । बहुरि केई समवायिकारणपणा लक्षण कहै । हैं सोभी गुणकर्मकेविषं पाईये है। तब ते गुणकर्मभी द्रव्य न ठहरें । बहुरि कोई गुणवानपणा होते | क्रियावानपणा समवायिकारणपणा लक्षण कहे है । सो यह तौ गुणवानपणा कहनेतेही आय गया । क्रियावादपणा कहना आदि निःप्रयोजन है। बहुरि अनेकान्तका आश्रय ले विक्षातें कछु कहै तौ | निर्दोषही है । स्याद्वादका आश्रय लिये विवाद नाहीं है । बहुरि द्रव्यवि क्रमवर्ती अनेक धर्म हैं , | तथा तिन सर्व क्रमवर्तीधर्मनिकी साथि वर्तते अनेक धर्म हैं, तथा कालभेद न करिये तब सर्वकालमें एकही द्रव्य सहवर्ती क्रमवर्ती धर्मेनिस्वरूप एककाल है । ऐसें इस लक्षण करनेते सदानेकान्त क्रमानेकांत क्रमाक्रमानेकांत भली भांति सिद्ध होय है ॥ आगे कहे जे पांच द्रव्य तिनके लक्षणनिर्देश करनेतें पांचही द्रव्यका निश्चयका प्रसंग आवै है, तातें छठा द्रव्य न कह्या, ताके सूचनेके अर्थि सूत्र कहे हैं ॥कालश्च ॥४०॥ याका अर्थ- काल है सोभी द्रव्य है । इहां द्रव्य है ऐसा वाक्यशेष है। इस कालविभी | द्रव्यका लक्षण है । यातें द्रव्य है । द्रव्यका लक्षण दोयप्रकार कह्या है । सद्व्यलक्षणं उत्पादव्ययधौ ఆయనకునకలకలండనకులునిండుతనని For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy