SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४६६ ।। है | बहुरि इहां कोई अन्यमती तर्क करै, जो, परमाणु तौ सदा बंधरूपही है । परमाणु बुद्धिकार | कल्पना कीजिये है | तैसें एकपरमाणु के विषै अविभागपरिच्छेद कल्पिये है। तैसें बंधनरूप स्कंध है ताके विषै परमाणु कल्पिये हैं । तुमनें काहू परमाणुके बंध बताया काहू के निषेध बताया सो यह युक्त नाहीं । ताका समाधान, जातें आगममें पुद्गल के छह भेद कहे हैं। पृथवी जल छाया च्यारि इन्द्रियनि विषय रसादिकं कार्मणस्कंध परमाणु ऐसें । इनमें परमाणु कह्या है, सो सत्यार्थ प्रत्यक्षज्ञानी देखकर कहा है । तातें कल्पित नाहीं है । तातें केई परमाणुके बंध न होय है तिनके निषेभी है । ऐसा न कहना जो स्कंधही बंधानरूप सदा है, परमाणु नाहीं ॥ आगें अधिकगुणकरिबंध होय है, तुल्यगुणनिकरि न होय है, ऐसा कौंन अर्थि कह्या ? ऐसे पूछें सूत्र कहै हैं— ॥ बन्धेऽधिक पारिणामिकौ च ॥ ३८ ॥ याका अर्थ - बंध होतें अधिक गुण दोय हैं । ते हीनगुणकूं अपने परिणामस्वरूप करे हैं । इहां अधिक शब्दके गुणशब्दकी पूर्वसूत्रतें अनुवृत्ति करणी । ऐसें अधिकगुण ऐसें कहना । या भांति दोयगुण आदि स्निग्ध रूक्ष परमाणुकें चतुर्गुण आदि स्निग्ध रूक्ष परमाणुनिस्वरूप पारिणा For Private and Personal Use Only Scervin
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy