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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४५५ ॥ SAHOPPINSIOPRIASIAORADARPAPEETHORRENSORRORISIOPPOONAORN ॥ उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥३०॥ याका अर्थ- उत्पाद व्यय प्रौव्य तीनूंकरि युक्त है सो सत् है। तहां चेतन तथा अचेतन द्रव्यकै अपनी जातिकू नाहीं छोडनेके निमित्तके वशते एकभावतें अन्यभावकी प्राप्ति होना सो उत्पाद है । जैसें मांटीके पिंडके घटपर्याय होनां । तैसेंही पहले भावका अभाव होना सो व्यय है। जैसे घटकी उत्पत्ति होते पिंडके आकारका नाश होना । बहुरि ध्रुवका भाव तथा कर्म होय ताईं | धौव्य कहिये । जैसें मांटीका पिंड तथा घट आदि अवस्थाविषे मांटी है सो अन्वय कहिये । सो पिंडमें था सोही घटमें है तेसैं । ऐसें उत्पाद व्यय धौव्य इन तीनूंहीकरि युक्त होय सो सत् है ।। . इहां तर्क, जो, युक्तशद तो जहां भेद है तहां देखिये है । जैसें दंडकरि युक्त देवदत्त कहिये || कोई पुरुष होय ताकू दंडयुक्त कहिये है । जो ऐसे तीनि भाव जुदेजुदोनिकरि युक्त है तो द्रव्यका | अभाव आवै है । ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं है । जातें अभेदविर्षेभी कथंचित् भेद || नयकी अपेक्षाकरि युक्तशब्द देखिये है । जैसें सारयुक्त स्तंभ है । इहां स्तंभतें सार जुदा नाही, || तो युक्तशब्द देखिये है । तैसें उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनूंका अविनाभावतें सत्का लक्षण बणे है। || अथवा युक्तशब्दका समाहितभी अर्थ होय है। युक्त कहिये समाहित तदात्मक ततस्वरूप ऐसाभी || aacsexsabserawbreatpartmsatatussaidio For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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