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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २८ ।। तातें विना तत् शब्द ताका ग्रहणका प्रसंग आवै है । तातें याके प्रसंग दूरि करनेकों तत् शद है । जातें ज्ञानचारित्र ए दोय हेतु नांही बणै है । कैसे ? केवलज्ञान तो श्रुतज्ञानपूर्वक है, तातें निसर्गपणां नांही संभवै । बहुरि श्रुतज्ञान परोपदेशपूर्वकही है । स्वयंबुद्धकै श्रुतज्ञान हो है सोभी जन्मांतरके उपदेशपूर्वक है । तातें याकैभी निसर्गजपनां नांही । बहुरि मति अवधि मनःपर्ययज्ञान | निसर्गजही हैं । इनिकै अधिगमजपनां नाही । कोई कहे-- ज्ञानसामान्य तौ दोय हेतुतें उपजै | ऐसा आया । ताका उत्तर इहां सामान्य अपेक्षा नाही विशेषापेक्षा है । दर्शनके भेदनिकी अपेक्षा तीनूं प्रकारके के दोऊ हेतु संभवे हैं । तैसें ज्ञानके भेदनिमें जुदा जुदाकै दोऊ हेतु नाही । बहुरि चारित्र है सो अधिगमजही है । जातें श्रुतज्ञानपूर्वक है । तातें मोक्षमार्गका संबंध न लैने• इहां तत् शद कह्या है ॥ बहुरि प्रश्न- जो निसर्गभी ज्ञानका नाम, अधिगमभी ज्ञानहीका नाम, उपदेश विना उपदेशकाही भेद है । ऐसें होतें ज्ञानहीतें सम्यक्त्वका उपजना ठहन्या । तब ज्ञान कारण ठहया । अरु सिद्धांत ऐसा है, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान युगपत् होय है । सो यहु कैसे ? ताका उत्तर| सम्यग्दर्शनके उपजावने योग्य ज्ञान ज्ञानावरणीयके विशेषः बाह्य परोपदेशतें पहलै होय है ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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