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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३९ ॥ जन है। ताकू कहिये, निष्प्रयोजन नाहीं है । इहां पुद्गलकू पुद्गलका उपकारभी दिखावना है, ताके अर्थि उपग्रहवचन है। जैसे कासी भस्मते मांजै तब उज्वल होय है, तथा जलमें कतक कहिये निर्मली नांखै तब निर्मल होय, तातें लोहपरि जल क्षेपै तब शीतल होय इत्यादि पुद्गलकू पुद्गल उपकार जानना । अथवा इस द्रव्यकर्मकू द्रव्यकर्मका उपकार है, अर सुख आदि जीवकेभी परिणाम हैं ऐसाभी सूचै है । बहुरि इहां सूत्रमें चशब्द है सो जैसे शरीरादिक पुद्गलके जीवकू उपकार हैं तैसें नेत्र आदि इन्द्रियभी उपकार है, तिनका समुच्चयके अर्थि है । जो आत्माकू एकांतकरि नित्यही कहै हैं तथा अनित्यही कहै हैं तिनके मतमें सुखादि आत्माकै नाहीं बण हैं, स्वादादीकरि सिद्ध होय है ॥ आगें ,पदलका उपकार जीवनिकू दिखाया, अजीवनिके जीवभी परस्पर उपकार करै हैं ताके दिखावनेकू सूत्र कहै हैं ॥परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ याका अर्थ- जीवनिकैभी परस्पर उपकार है । इहां परस्पर ऐसा शद है, सो कर्मव्यतिहार तथा क्रियाव्यतिहारमें देते है । व्यतिहार कहिये वाका वह करै वाळू वह करै, सो आपसमें जीवनिकै उपग्रह कहिये उपकार वर्ते है । सो कहा सोही कहिये है । स्वामीकै अर चाकरकै परस्पर उपकार Satsapdeorisatarrerespeciansextoberts For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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