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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ।। पान ४३२ ॥ कू सर्वगत कहिये है, आकाश तो नित्य निष्क्रिय है, कहूं जाय नाहीं तौऊ सर्वगत उपचारतें कहिये है तैसें इहांभी जानना । इहां तर्क, जो, आकाशका अवकाश देना स्वभाव है । तो वक्र आदिकरि पाषाण आदिका तथा भीत आदिकरि गऊ आदिका व्याघात कहिये रुकना नाही चाहिये । बहुरि व्याघात देखियेही है । तातें आकाशकै अवकाश देना नाहीं ठहस्सा । ताका समा. धान, जो, यह दोष इहां नाहीं है । वज्रलोष्टादिक स्थूल हैं तिनके परस्पर व्याघात है । यातें आकाशका अवकाश देना नाहीं बांध्या जाय है । तहां अवगाह करनेवालेहीकै व्याघात है, तेही परस्पर अवगाहन करै है, तातें यह आकाशका दोष नाहीं। बहुरि जे सूक्ष्मपुद्गल हैं ते भी परस्पर अवकाशदान करै हैं । बहुरि इहां प्रश्न, जो, ऐसे है सूक्ष्म पुद्गलभी परस्पर अवकाश दे हैं, तो अवकाश देना आकाशका असाधारणलक्षण न ठहला । ताका समाधान, जो, ऐसें नाहीं है । सर्वपदानिकू साधा. रण युगपत् अवकाश देना आकाशका असाधारण लक्षण है, यातें दोष नाहीं । बहुरि कहें हैं, जो, लोकाकाशविर्षे अवगाह करनेवाले नाही, तातें तहां अवकाशदानभी नाहीं । ताका समाधान, जो, द्रव्यका स्वभाव है, ताका त्याग द्रव्य करे नाहीं। इहां क्रियावान जीवपुद्गल तौ आकाशकू For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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