SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४२९ ॥ | ऐसें है तो उपकारशब्दकें द्विवचन चाहिये है । ताकू कहिये यह दोष नाही है। सामान्यकरि कह्या है, तातें पाई संख्याकू शब्द छोडे नाही, ताते एकवचनही है। जैसें साधुपुरुषका तप करना | शास्त्र पढना कार्य है, इहां दोऊ कार्यकू सामान्यकरि एक कहिये; तैसें इहांभी जानना। इहां | ऐसा अर्थ भया, गमन करते जे जीव पुद्गल द्रव्य तिनकू गमनका उपकारवि साधारण आश्रय धर्मद्रव्य है, जैसें मत्स्यकं गमनविर्षे जल है तैसें। बहुरि तैसेंही तिष्ठता जो जीव पुदल द्रव्य तिनकू स्थिति उपकारविर्षे अधर्मद्रव्य साधारण आश्रय है, जैसें घोडा आदिकू तिष्ठतें पृथिवी है तैसें ॥ इहां कोई तर्क करै- जो, उपकार शद तो कह्याही, सूत्रमें उपग्रहवचन निष्प्रयोजन है ।। ताका समाधान, जो, इहां धर्मव्यका उपकार गतिसहकारी अधर्मद्रव्यका स्थितिसहकारी ऐसा यथासंख्य है, सो उपग्रहवचन न कहिये तो जीवनिकू धर्मद्रव्य गतिसहकारी पुद्गलनिकू अधर्मद्रव्य स्थितिसहकारी है । ऐसें इहांभी यथासंख्यकी प्राप्ति आवै । तातें ताके निषेधके अर्थि उपग्रहवचन | है । तहां उपकार तो सामान्यवचन भया । ताका विशेष उपग्रहशब्द भया । तब ऐसेंभी जानिये, जो, धर्म अधर्मके गति स्थिति करावनेका उपकार तौ नाहीं है, अर उपग्रहमात्र है । इहां उपग्रह अरु उपकार ए दोऊ शद कर्मसाधन हैं । तहां उपकार तो सामान्यवचन है अर उपग्रह विशेषवचन है । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy