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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ४०९ ॥ घट आदि है तैसें है । इहां कहै, नेत्रनिकरि तौ वायुरूप दीखे नाही । ताकूं कहिये, ऐसें तौ परमाणुभी नेत्रनिकरि नाही दीखै, ताकेँभी स्पर्शादिकका अभाव ठहरे है । ऐसैंही जलभी स्पर्शवान् है, तातैं पृथिवीकीज्यों गंधवान् अवश्य हैं । तथा अभिभी स्पर्शवान् है, तातैं रसगंधवान् है । बहुरि मन है सो दोयप्रकार है द्रव्यमन भावमन । तहां भावमन तौ ज्ञान है । सो जीवका गुण है, सो आत्मद्रव्यविषै गर्भित भया । बहुरि द्रव्यमन है सो रूपादिकके योगतें पुद्गलद्रव्यका विकार है, तातें यह ज्ञानोपयोग निमित्त है, तातैं नेत्रइन्द्रियकीज्यों रूपआदिसहितही कहिये || इहां तर्क, जो, शब्द मूर्तिक है, सो ज्ञानकूं कारण है, तैसें मनभी रूपादिरहित अमूर्तिकज्ञानकुं कारण है, तातैं मूर्तिकसाधनविर्षे हेतुकै व्यभिचार भया । ताका समाधान, जो, ऐसें नाही है । शब्द भी पुद्गल जघन्य ही है, तातें मूर्तिकही है । बहुरि अन्यवादी तर्क करे है, जो, एकपरमाणुनिका रूपादिसहित कार्य देखिये है, तातें रूपादिमान् कहिये है, तैसें वायुमनका रूपादिसहित कार्य दीखें नाही । ताका समाधान, जो, वायुमनकेंभी रूपादिकार्यकी प्राप्ति बणें है । जातैं परमाणुमात्र सर्वही रूपादिकार्यसहितपणा है । ऐसा तौ नाही । जो कोई पृथिवीतें उपजे जातिविशेषकूं लिये परमाणु हैं ते न्यारे ही हैं । सर्वही परमाणुनिकी पलटनी दीखै है । पृथिवीतें जल होय है, For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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