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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३७२ ॥ उपरि जाय सूर्यनिके विमान विचरें हैं । तातें अशी योजन उपरि जाय चन्द्रमानिके विमान हैं । ता तीनि योजन ऊपर जाय नक्षत्रनिके विमान हैं । तातैं तीनि योजन ऊपर जाय बुधनिके विमान हैं । तातैं तीनि योजन ऊपर जाय शुक्रनिके विमान हैं । तातें तीनि योजन ऊपर जाय बृहस्पति के विमान हैं । तातैं चारि योजन ऊपर जाय मंगलके विमान हैं । तातैं चारि योजन ऊपर जाय शनैश्वरके विमान हैं । यह ज्योतिष्कमंडलका आकाशमें तलें ऊपरि एकसौ दश योजनमांहीं जानना | बहुरि तिर्यग्विस्तार असंख्यात द्वीपसमुद्रनिप्रमाण घनोदधिवातवलयपर्यंत जानना । इहां उक्तं च गाथा है ताका अर्थ - सातसै नवै, दश, अशी, च्यारि, त्रिक, दोय, चतुष्क ऐसें एते योजन अनुक्रमतें । तारा । ७९० | सूर्य | १० | चंद्रमा | ८० | नक्षत्र | ३ | बुध । ३ । शुक्र | ३ | बृहस्पति | ३ | मंगल | ४ | शनैश्वर । ४ । इनका विचरना जानना ॥ आगें ज्योतिषीनिका गमनका विशेष जाननें के अर्थ सूत्र कहैं हैं॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥ - याका अर्थ - मेरुप्रदक्षिणा ऐसा वचन है, सो गमनका विशेष जानने कूं है । अन्यप्रकार गति मति जानूं । बहुरि नित्यगतयः ऐसा वचन है, सो निरंतर गमन जनावने के अर्थ 1 For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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