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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३६८ ॥
बहुरि आनत प्राणत आरण अच्युत स्वर्गके देव अपनी देवांगनाका मनकेविर्षे संकल्पमात्रहीत परमसुखकू पावै हैं॥
आगें पूछे हैं, अगिले अहमिन्द्र देवनि मुख कौनप्रकार है ? ऐसे पूछे ताके निश्चयके अर्थि सूत्र कहें हैं--
॥ परेऽप्रवीचाराः ॥९॥ याका अर्थ- यहां परशब्दका ग्रहण अवशेष रहे जे अहमिन्द्र तिनके ग्रहणके अर्थि है । अप्रवीचारशब्द परमसुख जनावनेके अर्थि है । प्रवीचार तो मैथुनकी वेदनाका इलाज है । तिसके अभावतें तिन अहमिन्द्रनिकै सहजही परमसुख है ॥
आगें, आदिनिकायके देव दशप्रकारके भेदरूप कहे तिनकी सामान्यविशेष संज्ञाके नियमके अर्थि सूत्र कहें हैं--
॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥ १०॥
याका अर्थ-- भवननिविर्षे वसे ते भवनवासी कहिये, यह तो तिनकी सामान्यसंज्ञा है । बहुरि असुरकुमार नागकुमार विद्युत्कुमार सुपर्णकुमार अमिकुमार वातकुमार स्तनितकुमार उदधिकुमार |
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