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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३६८ ॥ बहुरि आनत प्राणत आरण अच्युत स्वर्गके देव अपनी देवांगनाका मनकेविर्षे संकल्पमात्रहीत परमसुखकू पावै हैं॥ आगें पूछे हैं, अगिले अहमिन्द्र देवनि मुख कौनप्रकार है ? ऐसे पूछे ताके निश्चयके अर्थि सूत्र कहें हैं-- ॥ परेऽप्रवीचाराः ॥९॥ याका अर्थ- यहां परशब्दका ग्रहण अवशेष रहे जे अहमिन्द्र तिनके ग्रहणके अर्थि है । अप्रवीचारशब्द परमसुख जनावनेके अर्थि है । प्रवीचार तो मैथुनकी वेदनाका इलाज है । तिसके अभावतें तिन अहमिन्द्रनिकै सहजही परमसुख है ॥ आगें, आदिनिकायके देव दशप्रकारके भेदरूप कहे तिनकी सामान्यविशेष संज्ञाके नियमके अर्थि सूत्र कहें हैं-- ॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥ १०॥ याका अर्थ-- भवननिविर्षे वसे ते भवनवासी कहिये, यह तो तिनकी सामान्यसंज्ञा है । बहुरि असुरकुमार नागकुमार विद्युत्कुमार सुपर्णकुमार अमिकुमार वातकुमार स्तनितकुमार उदधिकुमार | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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