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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aasabeertiseriasisteraseatsekseberresserts ॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३१५ ॥ हैमवतक्षेत्रकी सीमावि तिष्ठे है । ताकू क्षुद्रहिमवान्भी कहिये । सो, सौ योजनका ऊंचा है । बहुरि हैमवतक्षेत्र अरु हरिक्षेत्रका विभाग करनेवाला महाहिमवान् दोयसौ योजनका ऊंचा है । बहुरि महाविदेहक्षेत्रकी तौ दक्षिणदिशाने अरु हरिक्षेत्रतें उत्तरदिशा. निषधनामा कुलाचल है। सो च्यारिसै योजन ऊंचा है । बहुरि उत्तरदिशाविर्षेभी पर्वत अपने अपने क्षेत्रके विभाग करनेवाले नील रुक्मी शिखरी ए तीन हैं सो पूर्वोक्त च्यारीसै दोयसै एकसो योजन ऊंचा है सो जाननां ॥ बहुरि इनिका मूल अवगाह पृथिवीविर्षे ऊंचाईते चौथै भाग जाननां ॥ आणु तिनि कुलाचलनिका वर्णका विशेषकी प्रतिपत्तीके अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ॥ १२॥ याका अर्थ-- ये कुलाचल हेम कहिये पीतवर्ण, अर्जुन कहिये श्वेतवर्ण, तपनीय कहिये तापा सोना सारिखा रक्तवर्ण, वैडूर्य कहिये नीलवर्ण, रजत कहिये श्वेत, हेम कहिये पीत ऐसे वर्णमय हैं ॥ जे ए कहे हिमवत् आदि कुलाचल ते अनुक्रमतें हेमादिकमयी जाननें। तहां हेममय तौ हिमवान है, सो पीला पाटसारिखा वर्ण है । बहुरि अर्जुनमय महाहिमवान है, सो शुक्ल है । | बहुरि तपनीयमय निषध है सो दुपहरीके सूर्यके वर्णसारिखा है । बहुरि वैडूर्यमय नील है, सो | extsabserelaxerasisixercisxeranisatisxeritsaprerits For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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