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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir articlertiser a ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ॥३०४॥ | कही सो न्यारी न्यारी पृथ्वीसंबंधी जानि लेनी । तहां सप्तम पृथिवीके श्रेणीबंध च्यारि रहे । तिनिका नाम पूर्वदिशावि काल, दक्षिणदिशावि महाकाल, पश्चिमदिशावि रोख , उत्तरदिशाविर्षे महारौरव ऐसे हैं । बहुरि सर्व बिला चौरासी लाख हैं। तहां इंद्रक तो गुणचास हैं । श्रेणीबंध नव हजार छहसै च्यारि हैं । बहुरि प्रकीर्णक तियासी लाख निवै हजार तीनसौं सैंतालीस हैं। तिनिमें सर्वही भूमीमें पांचवै भाग विला तो संख्यात हजार संख्यात हजार योजननिकै विस्तार हैं । बहुरि अवशेष च्यारि भाग विला असंख्यात लाख असंख्यात लाख योजनकै विस्तार हैं । इन सर्वही बिलानिके नाम अशुभही अशुभ जाननें ॥ आगें, तिनि भूमिनिविर्षे नारक जीवनिकै अन्यविशेष कहा है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥३॥ याका अर्थ- इनि भूमिनिविर्षे नारकजीव हैं ते सदा अशुभतर हैं लेश्या परिणाम देह || वेदना विक्रिया जिनिकै ऐसे हैं । लेश्यादिकका अर्थ तो पहलै कह्या , सोही जाननां । अशुभतर ऐसा विशेषण तिनिका अधिकपणांकै अर्थि है । सो तिर्यंचनिकै जैसे अशुभलेश्यादिक हैं | तिनितें अधिके नारकीनिकै जानने । अथवा ऊपरिके नारकीनिकै जैसे हैं, तिनितें अधिक sertertabeerialistophererits For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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