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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra p www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३०० || इहाँ विशेष जो, रत्नप्रभाभूमि है सो चित्र वज्र वैडूर्य लोहित होत ज्ञेमसार गल्व गोमेध प्रवाल ज्योति रसांजन मूल काकस्फटिक चंदनवर्धक बकुल शिलामय ए सोलह प्रकारके रत्ननिकी प्रभा सहचरित है । तातैं याका रत्नप्रभा नाम कहै है । सो एक लाख अशी हजार योजनकी मोटी है । ता तीन भाग हैं। उपरि तौ खरभाग है, सो तौ सोला हजार योजनका है । सो तौ चित्र आदि रत्न कहे तिनिकरि रचित है । ताकै नीचे पंकभाग है सो चौरासी हजार योजनका मोटा है । ताकै नीचे अब्बहुल भाग है सो असी हजार योजनका मोटा है । तहां पहले खरभागविषै हजार योजन उपरिके तथा हजार योजन नीचैके छोडि बीच के चौदह हजार योजनविषै किन्नर किंपुरुष महोरग गंधर्व यक्ष भूत पिशाच ए सात जातिके तौ व्यंतर बहुरि नाग विद्युत् सुपर्ण अभि वातस्तनित उदधि द्वीप दिक्कुमार ए नव जाति के भवनवासीनिके आवास हैं। पंकभागविषै राक्षस व्यंतर अरु असुरकुमार भवनवासीनिके निवास हैं । बहुरि अव्बहुल भागविषै नरक हैं । बहुरि दूसरी शर्कराप्रभा भूमिकी मोटाई बत्तीस हजार योजनकी है । तीसरी वालुकाप्रभा भूमिकी ईस हजार योजनकी है । बहुरि चौथी पंकप्रभा भूमिकी मोटाई चोईस हजार योजन की है । बहुरि पांच धूमप्रभा भूमिकी मोटाई वीस हजार योजनकी है । बहुरि छठी तमः प्रभा भूमिकी For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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