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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। द्वितीय अध्याय ॥ पान २८४ ॥ ॥ अप्रतिघाते॥१०॥ याका अर्थ- तैजस कार्मण ए दोऊ शरीर अप्रतिघाते कहिये रुकनेते रहित हैं । मूर्तिक करि रुकना ताकू प्रतिघात कहिये । सो जहां नांही सो अप्रतिधात है । सो तैजस कार्मण ए दोऊ अप्रतिघात हैं । जातें ए सूक्ष्म परिणमनरूप हैं । जैसे लोहका पिंडमें अग्नि प्रवेश करे तैसें ए वज्रपटलविर्षेभी प्रवेश करि जाय रुकै नांही । इहां कोई कहै, वैक्रियिक आहारकभी कारकरि रुकै नांही तेभी ऐसे क्यों न कहै ? ताका समाधान, जो, इहां सर्वक्षेत्रविर्षे नांही रुकनेकी विवक्षा है । जैसे तैजस कार्मणका सर्वलोकवि अप्रतिघात है, तैसें वैक्रियिक आहारकका नांही है । इनिका गमन त्रसनांडीमांहीही है । सिवाय प्रतिघातही है । आगें पूछे है, कि, इनि दोऊ शरीरनिका एताही विशेष है कि किछु औरभी है ? ऐसे पूछ विशेष है, ताका सूत्र कहै हैं-- ॥ अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ याका अर्थ-- ए दोऊ शरीर अनादितें संबंधरूप हैं । और शरीर छूटि नवीन वणै है तैसे ये नांही हैं । इहां चशब्द है सो विकल्प अर्थविर्षे है । जातें ऐसा अर्थ भया, अनादिसंबंधभी For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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