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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Agertaertertseraceaesaberssertseriasis ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २७७ ॥ | आदि योनिकै आधार आत्मा संमूर्छनादि जन्मकरि शरीर आहार इंद्रियादिककै योग्य पुद्गलान... ग्रहण करै है । तहां देवनारकीनिकी तो अचित्तयोनि है । जाते इनिके उपजनेके ठिकाणे हैं ते पुद्गलके स्कंध अचित्त हैं । बहुरि गर्भज प्राणी हैं तिनिकी मिश्र योनि है । जातें इनिकै उपजनेके ठिकाने माताके उदरविर्षे वीर्य लोही तो पुद्गल है, सो अचित्त कहिये । बहुरि माताका आत्मा चित्तवान् है । तातें तिसकरि मिश्र कहिये । बहुरि संमूर्छन प्राणी हैं ते तीनूंही प्रकारके योनिमें उपजे हैं । केई तौ सचित्तयोनिविर्षे उपजे हैं । जैसै असाधारण शरीरवाले जीवनिकै एकही शरीरमैं बहुत जीव हैं । तातें परस्पर आश्रयतें सचित्त हैं । केई अचित्तयोनिवि उपजै हैं । तिनिके उपजनेके ठिकाणे पुद्गलस्कंधही हैं । केई मिश्रयोनि हैं । बहुरि देवनारकीनिकै तौ शीतोष्णयोनि है । तिनिके उपजनेके ठिकाणे केई तौ शीत हैं केई उष्ण हैं । बहुरि तैजसकायके जीवनिकी योनि उष्णही है । अन्यप्राणी केई शीतयोनिमें उपजे हैं | केई उष्णमें उपजे हैं केई मिश्रमै उपज हैं । बहुरि देव नारकी एकेंद्रिय जीव इनिकी योनि तौ संवृत है| है। देवनारकी तो संपुटमैं उपजै हैं । एकेंद्रिय जीवभी ढकी योनिमेंही उपजै हैं । बहुरि विकलत्रय विवृतयोनिविर्षे उपजे हैं ॥ बहुरि गर्भज मिश्रयोनिवि उपजै हैं । केई प्रदेश गूढ हैं केई प्रदेश | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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