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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २७५ ॥ जाय ताकू संमूर्छन कहिये । संमूर्छन शद्धका अर्थ अवयवका कल्पन है ।। बहुरि स्त्रीके उदरविर्षे वीर्यलोहीका गरण कहिये मिश्रित होनां मिलनां सो गर्भ है । अथवा माताकरि उपयुक्त कीया जो आहार ताका जाविर्षे गरणा कहिये निगलना होय सो गर्भ कहिये ॥ बहुरि जाविर्षे प्राप्त होयकरिही उपजै उठै चलै ऐसा देवनारकोनिका उपजनेका स्थान ताळू उपपाद कहिये ॥ ए तीन संसारी जीवनिकै जन्मके प्रकार हैं। सो शुभ अशुभ परिणामकै निमित्ततें बंध्या जो कर्म ताके भेदनिके उदयकरि कीये होय हैं । इहां विशेष, जो, एकजन्मके भेद सामान्यपणे कीये हैं इनिहीकै विशेषकरि भेद कीजिये तो अनेक हैं। बहुरि गर्भजन्म तथा उपपादजन्मके कारण तो प्रगट हैं। बहुरि संमूर्छन जन्मके वाह्य कारण प्रत्यक्षगोचर नांहीभी हैं। जहां तहां उत्पत्ति होय जाय है ऐसें जाननां ॥ आगें, अधिकाररूप कीया जो संसारके भोगनेकी प्राप्तिका आश्रयभूत जन्म, ताकी योनिके भेद कह्या चाहिये । एसे पूछ सूत्र कहै हैं-- ॥सचित्तशीतसँटताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥ ३२॥ याका अर्थ- सचित्त शीत संवृत इनितें इतर अचित्त उष्ण विवृत बहुरि तीनूंहीकै मिश्रतें ऐसें नव भेद योनिके हैं । आत्माका चैतन्यका विशेषरूप परिणाम सो तो चित्त है । तिस चित्तकरि For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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