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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobetirth.org ॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय । पान २७० ।। कालमें श्रेणीरूपही गमन हो है । तहां तो कालनियम है । बहुरि ऊर्बलोकते अधोलोक अधोलोकतें ऊर्ध्वलोक तिर्यक् लोकतें नीचे उपरि गमन करै सो श्रेणीरूपही करै । तथा पुद्गलकी परमाणू एक समयमैं चोदा राजू गमन करै सो सूधाही गमन है । ऐसें देशका नियम है । बहुरि औरप्रकार गमन है सो नियम नाहीं-सूधाभी होय वक्रभी होय ।। आगें तिसहीका विशेष जाननेकै अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ याका अर्थ- मुक्तजीवकी गति अविग्रहा कहिये वक्रताकरि रहित है । श्रेणीबंध गति करि एक समयविर्षे सिद्धिक्षेत्रवि जाय तिष्ठै है ॥ विग्रहनाम व्याघातका है । ताकू कौटिल्य कहिये वक्रताभी कहिये । ऐसा विग्रह जहां नाहीं सो अविग्रह कहिये । ऐसी अविग्रह गति है, सो मुक्तजीवकै है । इहां मुक्तजीवका नाम कैसे जानिये ? जो अगले सूत्र में संसारीका नाम है, तातें जानिये यहां मुक्तजीव है । बहुरि इहां कोई तर्क करै है, अनुश्रेणि गति है, इस सूत्रकरिही अन्य गतिका निषेध भया, फेरी इस सूत्रकरि कहा प्रयोजन रह्या? ताका समाधान, पूर्वसूत्रविर्षे अनुश्रीण | गति तो कही । तहां इस सूत्रकरि ऐसा जानिये, जो, कहूं श्रेणीविनांभी गमन है, ताकै अर्थि | Satsaxcertifourtworreritsapoatsabrertiseriesserts For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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