SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २६३ ॥ Createracareerracotseriespresserieseartskertists ___ आगें कहै हैं, जो मन अनवस्थित है तातें यह इंद्रिय नाही । ऐसें याकै इंद्रियपणां निषेध्या है । सो कहा यह मन उपयोगका उपकारी है की नाही है ? तहां कह्या जो उपकारी है मनीवना इंद्रियनिकै विषयनिवि विशिष्ट अपने प्रयोजनरूप प्रवृत्ति नांही होय है । तब पूछ है, मनकै अर इंद्रियनिकै सहकारी मात्रही प्रयोजन है कि कछु औरभी प्रयोजन है ? ऐसे पूछ मनका प्रयोजन दिखावनेकू सूत्र कहै हैं-- ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ याका अर्थ- अनिद्रिय कहिये मन ताका श्रुत कहिये श्रुतज्ञानगोचर पदार्थ है सो विषय है प्रयोजन है ॥ श्रुतज्ञानका विषय जो अर्थ ताकं श्रुत कहिये । सो अनिद्रिय कहिये मन ताका विषय है । जातें पाया है इरुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम जानें ऐसा जो आत्मा ताकै सुणे पदार्थविर्षे मनका आलंबनस्वरूप ज्ञानकी प्रवृत्ति है । अथवा इरुतज्ञानकुंभी श्रुत कहिये है । सो यह ज्ञान अनिद्रियका अर्थ कहिये प्रयोजन है । यहु प्रयोजन मनकै स्वाधीनही साध्यरूप है । इंद्रियनिका आधीनपणां यामैं नाही है । इहां कोई कहै सुननां तौ श्रोत्र इंद्रियका विषय है । ताका समाधान , | जो, सुननां तौ श्रोत्र इंद्रियका विषय है सो तो मतिज्ञान है । तिस पछि जीवादि पदार्थ विचारिये For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy