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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २५० ॥ स्थान तिनिभी सर्वजघन्य लीजिये । तहां यो तिस प्रकृतिबंधकूं कारण जे योगस्थान ते श्रेणी के असंख्यातवै भागपरिमाण असंख्यात हैं । ते अविभागप्रतिच्छेदनकरि अनंतभागवृध्दि रहित अनंत गुणवृध्दिरहित चतुःस्थानरूपही है । तिनिर्मेंसूं एक तिस प्रकृतिके योग्य योगस्थान लीजिये । तहां योगस्थान पलटै तब द्वितीय तृतीय ऐसें जगत् श्रेणी असंख्यात भागमात्र जे योगस्थान ते अनुक्रम होय । वीचित्रीचि अन्यकषायस्थान अन्य अनुभागस्थान अन्य योगस्थान होय ते न गिणिये । ऐसें जब श्रेणीकै असंख्यातवै भाग योगस्थान होय चुकै तब एक अनुभागस्थान पलटै । ऐसे असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागस्थानविर्षे एकएकविषै योगस्थान श्रेणी के असंख्यात भागपरिमाण होते जाय तब अनुभागस्थान असंख्यात लोकपरिमाण अनुक्रमतें होय चुकै तब एक कषायस्थान पलदै । तब दूसरा कषायस्थान पलदै । तब दूसरा कषायस्थानविषैभी तैसैंही अनुभागस्थान तथा योगस्थान होय । बहुरि तीसरे कषायस्थानविषै अनुभागस्थान योगस्थान होय । ऐसे ही असंख्यात लोकपरिमाण कषायस्थान होय चुकै तब एक स्थितिस्थान पलटे । दूसरा स्थितिस्थान पलटै । दूसरा स्थितिस्थान समयाधिक अतंः कोटाकोटी प्रमाण लीजिये । बहुरि तैसेंही. असंख्यात लोकप्रमाण कषायस्थान तिनि एकएकवि असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागस्थान होय । बहुरि तिनि For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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