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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३६ ॥
अयोगकेवली लेश्यारहित है ऐसा निश्चय कीजिये है । इहां कोई पूछ अन्यप्रकृतिनिके उदयतें भये भाव औदयिकभावनिमें क्यों न कहे ? ताका समाधान- जो, इनिही भावनिमें गर्भित जानने । शरीरादिक पुद्गलविपाकीनिका तौ इहां जीवभाव कहनेते अधिकारही नाही । बहुरि जाति आदि जीवविपाकीगतिमैं गर्भित जानने । बहुरि दर्शनावरांयका उदय मिथ्यादर्शन कहनेतें गर्भित कीया है । जाते अतत्त्वार्थश्रध्दानकाभी नाम मिथ्यादर्शन है। बहुरि अन्यथा देखनेकाभी नाम मिथ्यादर्शन है । बहुरि हास्यादिक वेदनिके सहचारी हैं। तातें वेदनिमें गर्मित भये । बहुरि वेदनीय आयु गोत्रका उदयभी अघातिया है सो गतिमें गर्भित जानने ॥ आगे, पारिणामिक भाव तीन भेदरूप कह्या ताके भेदनिके प्रतिपादनके अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ याका अर्थ-जीवत्व, भव्यत्व अभव्यत्व ए तीन पारिणामिक भावके भेद हैं ॥ ए तीन भाव पारिणामिक अन्यद्रव्यनितें असाधारण आत्माके जानने । जातें कर्मका उदय, उपशम , क्षय, क्षयोपशमकी अपेक्षा इनिमें नांही है । द्रव्यके परिणामकीही अपेक्षारूप है । तहां जीवत्व तो चैत. न्यकू कहिये । बहुरि सम्यग्दर्शनादि भावकरि परिणमैगा ताकू भव्य कहिये । बहुरि सम्यग्दर्शनादिक
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