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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir రంగు ఆడతగులయ్యల కాలంలో కలకలం ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २२७ ॥ जातें ये भेद पूर्वोक्त भावनिके हैं। तहां विभक्ति भावनिके सूत्रमें कही सोही रही। बहुरि यहां यथाक्रम ऐसा वचन है सो यथासंख्यके जानने अर्थि है । बहुरि भेदका न्यारा न्यारा संबंध करणा । तातें औपशमिक दोय भेदरूप है । क्षायिक नव भेदरूप है । मिश्र अठारह भेदरूप है । औदयिक इकईस भेदरूप है । पारिणामिक तीन भेदरूप है । ऐसें जानिये है ॥ आर्गे शिष्य पूछे है , जो, ऐसें है तो औपशमिकके दोय भेद कौनसे हैं ? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं ॥ सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ ____याका अर्थ- औपशमिकभावके भेद औपशमिकसम्यक्त्व औपशमिकचारित्र ए दोय हैं ॥ सम्यक्त्वचारित्र तौ पूर्व जिनका लक्षण कह्या तेही जानने । बहुरि पूछे है, तिनिके औपशमिकपणा कैसे है ? तहां कहिये है, चारित्रमोह दोय प्रकार है । एक कषायवेदनीय एक नोकषायवेदनीय । तहां कषायवेदनीयका भेदनिमेंसूं अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ ए च्यारि लेने । बहुरि दर्शनमोहके तीन भेद हैं मिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृति सम्यमिथ्यात्व ऐसे । इनि सात प्रकृति निका उपशमतें औपशमिकसम्यत्व होय है । इहां कोई पूछ है, अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यकै कर्मका उदयकरि कलुषपणां है, ताकै उपशम काहेरौं होय ? ताका समाधान- काललब्धि आदिके For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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