SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २१६ ॥ ఆరోగ్యసులువడంలో కాండముండదని र्यायनिका अन्यद्रव्यगुणपर्यायनिविर्षे आरोपण करना, सो उपचार है। याकू व्यवहार कहिये असत्यार्थभी कहिये गौणभी कहिये । बहुरि दूसरा अध्यात्म उपदेश । तामैं अध्यात्मग्रंथका आशय यह है, जो, आत्मा अपना एक अभेद नित्य शुद्ध असाधारण चैतन्यमात्र शुध्दद्रव्यार्थिकनयका विषयभूत है । सो तो उपादेय है ॥ बहुरि अवशेष भेद पर्याय अनित्य अशुध्द तथा साधारण गुण तथा अन्यद्रव्य ए सर्व पर्या- | यनयके विषय ते सर्व होय हैं। काहेत ? जातें यह आत्मा अनादितें कर्मबंधपर्यायमें मम है । | क्रमरूप ज्ञानतें पर्यायनिकूही जाणे है । अनादि अनंत अपना द्रव्यत्वभावका याकै अनुभव नाही। तातें पर्यायमात्रमें आपा जानै है । तातें ताकू द्रव्यदृष्टि करावनेके अर्थि पर्यायदृष्टीकं गौणकरि | असत्यार्थ कहिकरि एकांतपक्ष छुडावनेके अर्थि झूठा कह्या है । ऐसा तो नाही, जो, ए पर्याय | सर्वथाही झूठे हैं कछु वस्तु नाही आकाशके फूलवत् हैं । जो अध्यात्मशास्त्रका वचनकू सर्वथा | एकांत पकडि पर्यायनिकू सर्वथा झूठा मानै तौ वेदांती तथा सांख्यमतीकीज्यों मिथ्यादृष्टि ठहरै | है । पहले तो पर्यायबुद्धिका एकांत मिथ्यात्व था। अब ताकू सर्वथा छोडि द्रव्यनयका एकांत || मिथ्यादृष्टि होगा, तब गृहीतमिथ्यात्वका सद्भाव आवैगा । बहुरि उपनयके भेदनिवि सद्भूत asibserespecreditertaixertisertiliserticarinits For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy