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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २१३ ॥ . कथंचित प्रस्थ अवक्तव्य, कथंचित् अप्रस्थ अवक्तव्य, कथंचित् प्रस्थाप्रस्थ अवक्तव्य ऐसें सात भये । तैसेंही सर्वनयके विषयविर्षे विधिनिषेध लगाय साधने । इहां कोई पूछै; जो, द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयके भेदरूप नैगमादिक सात भेद कहे ते तो जाणे । परंतु शास्त्रनिमें निश्चयव्यवहार नयकी कथनी बहुत । सो यहु न जाणी, जो, ये निश्चयव्यवहारनय कहां कहै है? इनिका विषय कहा है ? । ताका उत्तर-जो, नयचक्र ग्रंथ गाथाबंध है । तहां ऐसें कह्या है- जो निश्चयनय व्यवहारनय हैं ते सर्व नयनिका मूलभेद हैं । इनि दोय भेदनितें सर्वनयभेद प्रवर्ते हैं। तहां निश्चयके साधनेकू कारण द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोऊ नय हैं। वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायस्वरूपही है । ताते इनि दोऊ नयनितें साधिये है ।। तारौं ये दोऊही तत्त्वस्वरूप हैं । सत्यार्थ हैं ॥ बहुरि व्यवहार है सो उपनय है । ताके तीन भेद हैं सद्भूतव्यवहार, असद्भुतव्यवहार, उपचरितव्यवहार । तिनिके उत्तर भेद आठ हैं। तहां सद्भूतके दोय भेद । तहां गुणगुणी तथा पर्यायपर्यायी द्रव्यनिविर्षे कर्ताकर्म आदि कारककी प्रवृत्तिके सद्भावते संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिकके भेदतें शुद्धद्रव्यविर्षे भेद कहै । सो तो शुद्धसद्भूतव्यवहार है । तैसेही एकद्रव्यकै एकही | प्रदेश है, भिन्नक्षेत्र नाही, तौऊ संख्यात असंख्यात अनंतप्रदेशादिक कहै । सोऊ शुद्धसद्भूतव्य. For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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