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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९२ ॥ SAFARPAGACASPO RAAPPROGANAGA%2BPresiggexp2-resea अणछती कहनां अनेकप्रकार जाननां । बहुरि अणछतीकू छती कहनां । जैसें पररूपादिककरि वस्तु असत्वरूप है तौभी तिसकौ सर्वथा सत्स्वरूप कहनां । इत्यादिक पहलै कहे तिसका उलटा जाननांग बहुरि देशकालस्वभावकरि अदृष्ट जे पदार्थ तिनिविर्षे बौद्धमतीनिकै संशय है । केई शून्य वादीनिकै पृथ्वी आदिक तत्त्वनिविर्षे संशय है । बहुरि केईकनिकै सर्वज्ञके अस्तित्वीवर्षे संशय है । बहुरि केईकनिकै प्रलापमात्रके आश्रयतें सर्वही तत्त्वविर्षे अनध्यवसाय है । ते कहै है काहेते निर्णय कीजिये ? हेतुवादरूप तर्कशास्त्र है ते तो कही ठहरै नांही । बहुरि आगम है ते जुदे जुदे हैं । कोई कछू कहै कोई कछु कहै तिनिका ठिकानां नाही । बहुरि सर्वका ज्ञाता कोई मुनि प्रत्यक्ष नाही | ताके वचन प्रमाण कीजिये । बहुरि धर्मका स्वरूप यथार्थ सूक्ष्म है सो कैसे निर्णय होय ? तातें जो । वडा जिस मार्ग चले आये तैसें चलनां प्रवर्तनां, निर्णय होता नाही, ऐसे अनध्यवसाय है ॥ | ऐसेंही मतिज्ञानरूप विनां उपदेश सहजविपर्यय होय है । ताके भेद अवग्रहादि तथा स्मृति | प्रत्यभिज्ञान तर्क । स्वार्थानुमानकरि पदार्थकू अन्यथा ग्रहण करनेतें विपर्यय होय है । तहां स्वार्थानुमान विपर्ययरूप हेत्वाभास च्यारि प्रकार है असिद्ध विरुद्ध अनेकांतिक अकिंचित्कर । सो इनिका स्वरूप परीक्षामुख न्यायदीपिकादि शास्रनितें जाननां। बहुरि शास्त्रके वाक्यके अर्थ करनेविष aasexikssextiteerialisaksshreatsexstoerists For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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