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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ३ ।। ఆదరణrcarefయగులందరకుందని नसूं वाद कीया, तब वादमैं हाखा, सो भगवानसूं कषायकरि तेजोलेश्या चलाई । सो भगवानकै पेचसका रोग हुवा, तब भगवानकै खेद बहुत हुवा, तब साधांनें कही, एक राजाकी राणी विलावकै निमिति कूकडा कबूतर मारि भुलस्या है, सो वै हमारै ताई ल्यावो, तब यह रोग मिटि जासी। तब एक साध वह ल्याया, भगवान् खाया, तब रोग मिट्या । इत्यादि अनेक कल्पितकथा लिखी ॥ अर श्वेतवस्त्र, यात्रा, दंड आदि भेष धारि श्वेतांवर कहाये । पीछे तिनिकी संप्रदायमैं केई समझवार भये । तिनि. विचार, ऐसे विरुद्धकथन तो लोक प्रमाण करसी नही । तब तिनिके साधनेकू प्रमाणनयकी युक्ति बणाय नयविवक्षा खडी करि जैसे तैसें साधी । तथापि कहां तांई साधै । तब कोई संप्रदायी तिनि सूत्रनिमें अत्यंत विरुद्ध देखे तिनिळू तौ अप्रमाण ठहराय गोपि किये, कमि राखे । तिनिमें भी केईकनैं पैंतालीस राखे । केईकनै बत्तीस राखे । ऐसे परस्पर विरोध वध्या। तब अनेक गच्छ भये, सो अवतांई प्रसिद्ध हैं । इनिकै आचारविचारका कछु ठिकाणा नांही। इनहीमें ढुंडिये भये हैं । ते निपट ही निंद्य आचरण धान्य हैं। सो कालदोष है। कछू अचिरज नही, जैनमतकी गौणता इस कालमै होणी है! ताके निमित्त ऐसेंही बणै ॥ बहुरि भद्रबाहुस्वामीपी, दिगंबरसंप्रदायमैं केतेक वर्ष तौ अंगनिके पाठी रहै । पीछे अंगज्ञा roadrasiprobabirkirastrateriasiseries For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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