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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १७८ ।। అడగలవులందుండsed్యలండర్యంతమునకు | इहां अनंतकी गणतिका अनंतभेद है। तातें फेरि फेरि अनंतका भाग कह्या है । ऐसें द्रव्यकी | अपेक्षा विशुद्धि कही । क्षेत्रकालकी पूर्व कहीही थी। बहुरि भावकी अपेक्षा विशुद्धि अतिसूक्ष्म द्रव्यके जाननेहीतें जाननी । प्रकृष्ट क्षयोपशमके योगते विशुद्धि घणी होय है । बहुरि अप्रतिपात' करिकैभी विपुलमति विशिष्ट जाननां । जाते जाकै विपुलमति होय ताके चारित्र वर्धमानही होय है । ताते उलटा न आवै । बहुरि ऋजुमति ज्ञानवाला कपायका उदयतें हीयमानचारित्रभी होय है । ताते उलटाभी आवै, तातें प्रतिपातीभी होय है । आगें, इस मनःपर्ययज्ञानका विशेष कह्या अवधि मनःपर्ययमें काहेते विशेष है सो कहौ ? ऐसे प्रश्न होते सूत्र कहै है ॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥ याका अर्थ- अवधिज्ञान बहुरि मनःपर्ययज्ञान इनि दोऊनिमें विशुध्दि कहिये उज्वलता, | बहुरि क्षेत्र जहां तिष्ठते भावनिकू जानें, बहुरि स्वामी जाकै यह ज्ञान होय सो आत्मा, बहुरि विषय ज्ञेय वस्तु इनि च्यारिके भेदतें भेदविशेष है । सोही कहिये हैं । मनःपर्ययज्ञानका विषय सूक्ष्म है। तातें तो अवधितें अतिशयकरि विशुध्द है उज्वल है । बहुरि क्षेत्र पहली कह्याही था । सो अवधिका atcherritoopertiseriespreatsareeriasisexstoerits 2050 For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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