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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १४८ ॥ ఆడనుందrdpreedoseలదనందనందుకు हलावनां इत्यादि क्रियाचिन्ह देखी ऐसा निश्चय भया जो वुगलापंक्तिही है, धुजा नांही है; तहां अवायज्ञान कहिये । बहुरि अवायकरि निश्चय कीया जो वस्तु ताका ऐसा दृढज्ञान होय जो और कालमें न भूलने यादि आवने... कारण होय, तहां धारणाज्ञान हो है। जैसें अवायज्ञानकरि प्रभातिमें वुगलापंक्ति देखी थी सोही यहु अब मैं देखी ऐसे ज्ञानकू कारण जो ज्ञान, सो धारणाज्ञान | कहिये । ऐसें इनि अवग्रहादिकनिका कहनेका अनुक्रम इनकी उत्पत्तिके अनुक्रमतें कह्या ।। इहां ऐसा भावार्थ जाननां- जो वस्तु सामान्यविशेषस्वरूप है तिस वस्तुकै अरु इंद्रियनिकै संबंध होतें प्रथम तौ सामान्य अवलोकनरूप निराकार दर्शन होय है तापीछे ता वस्तुका सामान्य विशेषरूप साकार ग्रहण होय ताकू अवग्रह कहिये । तापीछै तिसही वस्तूमें विशेष बहुत हैं तिनि. मैंतें कोई वस्तुके विशेषरूप जाननेकी अभिलाषारूप ज्ञान प्रवर्ता, जो, 'यह फलाणा विशेष होगा' ताकू ईहा कहिये । तापीछै तिसही विशेषकी किया चिन्हि देखी यह निश्चय भया, जो, | ' यह अभिलाषामें ग्रहण हुईथी सोही है' ताकू अवाय कहिये । तापीछै तिसहीविषं ऐसा ज्ञान दृढ भया, जो, 'अन्यकालमें वाळू भूलिसी नाही' ताळू धारणा कहिये । इनिमें विषयका भेद | भया, तातें गृहीतका ग्रहण नांही है । वहुरि सामान्यपणे वस्तुका रूप ग्रहण है, तातें नयभी नांही है । raniserasasreatieartBeatspxreritsasixixitsrreritings For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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