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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १२८ ॥ अनवस्था दूषण आवे है। तहां कहिये, अनवस्था न आवैगी। जैसें घटादिक प्रकाशनेविर्षे दीपक कारण है; तैसें अपने स्वरूपके प्रकाशनेविषभी वैही दीपक कारण है। अन्य प्रकाश नांही हेरिये है; तैसें प्रमाणभी स्वपरप्रकाशक अवश्य माननां । प्रमेयकीज्यों प्रमाणकै अन्यप्रमाणकी कल्पना कीजै तो स्वरूपका जाननेका प्रमाणकै अभाव होय, तब स्मरणकाभी अभाव होय । बहुरि स्मरणका अभाव मानिये तो व्यवहारका लोप होय । तातें स्वपरप्रकाशक प्रमाण मानना योग्य है । बहुरि इहां प्रमाणे ऐसा प्रथमाविभक्तीका द्विवचन कह्या है । सो एक तीन आदि प्रमाणकी संख्या अन्यवादी मानै है ताके निषेधकै अर्थि है । तथा आगै दोय संख्याका सूत्रभी कहसी ताके जनावने अर्थि है। अन्यवादी चार्वाक तौ एक प्रत्यक्ष प्रमाणही मान है। बहुरि | बौद्ध प्रत्यक्ष अनुमान ये दोय प्रमाण माने है। बहुरि नैयायिक वैशेषिक सांख्य हैं ते प्रत्यक्ष | अनुमान आगम उपमान ऎसें च्यारि प्रमाण मान है । बहुरि मीमांसक च्यारि तौ ए अरु अर्थापत्ति | अभाव ऐसे छह प्रमाण मानै है । सो प्रत्यक्ष परोक्ष ए दोय संख्या कहनेतें सर्वप्रमाण इनिमें गर्भित होय हैं। ऐसें ए पंचज्ञान प्रमाण कहे । तहां सम्यक् अधिकारतें सम्यग्ज्ञान है । मिथ्याज्ञान प्रमाण | नांही। इहां प्रश्न- जो, ऐसा कह्या है “यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ॥” याका अर्थ; ఆrierreddressed asseraspందుకు For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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