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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ११३ ॥
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इंद्रियके अनुवादकरि एकेंदिय विकलत्रयनिकै औदयिकभाव है । पंचेंद्रियनिविर्षे मिथ्यादृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिकै गुणस्थानवत् भाव है ॥
कायके अनुवादकरि स्थावरकायिकनिकै औदयिक भाव है ।जसकायिकनिकै गुणस्थानवत् भाव है। ___ योगके अनुवादकरि कायवचनमनोयोगीनिकै मिथ्यादृष्टि आदि सयोग फेवलीपर्यं तनिकै अर अयोगकेवलीनिकै गुणस्थानवत् भाव है ॥
वेदके अनुवादकरि स्त्रीपुरुषनपुंसकवेदीनिकै अर वेदरहितनिकै गुणस्थानवत् भाव है ॥ कषायानुवादकरि क्रोधमानमायालोभकषायवालेनिकै अर कषायरहितनिकै गुणस्थानवत् भाव है। ____ ज्ञानके अनुवादकरि मति अज्ञान श्रुत अज्ञान विभाज्ञानवालेनिकै अर मतिश्रुत अवधि मनःपर्यय केवलज्ञानीनिकै गुणस्थानवत् भाव है ॥ ____संयमका अनुवादकरि सर्वही संयतनिकै अर संयतामयतनिकै अर असंयतनि गुणस्थानवत् भाव है ॥ दर्शनानुवादकरि चक्षुर्दर्शन-अचक्षुर्दर्शन-अवधिदर्शन केवलदर्शनवालेनिकै गुणस्थानवत् भाव है ।। लेश्याके अनुवादकरि छहू लेश्यावालेनिकै अर लेश्यारहितनिकै गुणस्थानवत् भाव है ।।
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