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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ext2xet*****x ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान ९६ ॥ ___ सम्यक्त्वके अनुवादकरि क्षायिकसम्यग्दृष्टीनिका असंयतसम्यग्दृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंतनिका गुणस्थानवत् काल है । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टीनिका चान्यौं गुणस्थाननिका गुणस्थानवत् काल है। औपशमिक सम्यक्त्वविर्षे असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत इनि दोऊनिका नानाजीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट पल्योपमकै असंख्यातवै भाग है । एकजीव अपेक्षा जघन्यभी उत्कृष्टभी अंतर्मुहूर्त है। प्रमत्त अप्रमत्त संयतका अर च्यारि उपशमश्रेणीवालेका नानाजीवकी अपेक्षा एकजीवकी अपेक्षा जघन्य तो एक समय है उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है । सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यमिथ्यादृष्टिनिका गुणस्थानवत् काल है ॥ संज्ञीके अनुवादकरि मिथ्यादृष्टि आदि अनिवृत्तिवादरपर्यंतनिका पुरुषवेदवत् काल है। अवशेषका गुणस्थानवत् काल है । असंज्ञीनिका मिथ्यादृष्टिका नानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीव अपेक्षा जघन्य तौ क्षुद्रभवमात्र है । सासके अठारव्है भाग अर उत्कृष्ट अनंतकाल है । सो असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन है । दोऊ नामकरि रहितनिका गुणस्थानवत् काल है । आहारकका अनुवादकरि आहारकवि मिथ्यादृष्टिका नानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीवअपेक्षा जघन्य तौ अंतर्मुहूर्त है उत्कृष्ट अंगुलकै असंख्यातवा भाग है सो असंख्यातासंख्यात | ercir extente extByers For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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