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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय पान ॥ ९४ ॥ ज्ञानके अनुवादकरि मति अज्ञान श्रुतअज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टीनिका गुणस्थानवत् काल है । विभंगज्ञानीवि मिथ्यादृष्टिका नानाजीव अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीव अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट तेतीस सागर किछु घाटि है । सासादनसम्यग्दृष्टीका गुणस्थानवत् काल है । मति श्रुत-अवधि-मनःपर्ययज्ञानीनिका अर केवलज्ञानीनिका गुणस्थानवत् काल है । संयमके अनुवादकरि सामयिकच्छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसांपराय यथाख्यात शुद्धिसंयतनिका अर संयतासंयतनिका अर असंयत च्यारि गुणस्थाननिका गुणस्थानवत् काल है । दर्शनके अनुवादकरि चक्षुर्दर्शनवालेनिविर्षे मिथ्यादृष्टिका नानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एक जीव अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त है उत्कृष्ट दोय हजार सागर है । सासादनमम्यग्दृष्टिनिका क्षीणकषायपर्यंतनिका गुणस्थानवत् काल है । अचक्षुर्दर्शनवालेनिविर्षे मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यंतनिका गुणस्थानवत् काल है । अवधि केवलदर्शनवालेनिका अवधि केवलज्ञानिवत् काल है । लेश्याके अनुवादकरि कृष्णनीलकापोतलेश्याविर्षे मिथ्यादृष्टिका नानाजीवकी अपेक्षा सर्वकाल है । एकजीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट तेतीस सागर सतरा सागर सात सागर कछु अधिक है, सो नरक अपेक्षा है । सासादनको अर सम्यग्मिथ्यादृष्टिको गुणस्थानवत् काल है । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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