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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ श्रीसप्तपदोशाख-गुजरातीभाषानुवाद. ते सूत्रपाठ पहेला लखेलज छे, त्यांची जाणी लेवु. ते कारण माटे दिवसना अंतमां-समाप्तिमा प्रतिक्रमण करवं, ए मार्ग व्याजबीज छे. माटे प्रवचन-सिद्धान्तमा कहेल उदयतिथीमां पर्वतिथी आराधवानी रमणता करवी. २०६. ए प्रकारे उदयतिथी आराधवानो अधिकार समाप्त थयो. अथ साधु अने श्रावक प्रमुखोना देवसिय विगेरे पांचपतिक्रमणनी क्रिया सूत्रानुसारे सरखी जाणवी, २०७. हवे श्रावकोना प्रतिक्रमणमा जे विशेष छे, ते कहेवाय छ:-इरियावही पडिकमीने धर्मना उपगरण, मुहपत्तो, शरीर प्रमुखनी पडिलेहणा करीने वळो पण इरियावही पडिक्कमवी. २०८. सम्यकप्रकारनी जयणा करवा सारु, त्यारबाद बे खमासमण आपीने 'इच्छाकारण संदिस्सह भगवं सामाइयवयं संदिस्सावेमि, इच्छाकारेण संदि सह भगवं सामाइयवयं ठावेमि' २०९. एक नवकार गणवा पूर्वक सामायिकदंडग करेमिभंते उच्चारण करे, पछी आवस्यक क्रियानी वेळा प्राप्त थएल के एम जाणीने. २१०. आवश्यक क्रिया करवानो काळ प्राप्त थए छते अतिक्रमण करनाराओने बेसवानुं होतुं नथी, तेथी नजीकमा प्राप्त थएल आवश्यक काळथी प्रेराएला बेसवानो आदेश निरर्थक अहिं मागे नही. २११. काळे करातो स्वाध्याय श्रीजिनमतमांसुविशुद्ध कहेल छ, स्वाध्यायकरवानो अनुज्ञा श्रीजिनेश्वरदेवोए अकाळे करेल नथी. २१२. बेसणे तथा सज्झायना खमासमण आप्या पछी क्रियानुं संभव छे, ए भाव जो गीतार्थो मानताहोय तो For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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