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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १७७
"जे घर सरणपसत्ता, छकायरिऊ स किं चणा अजया। नवर मुत्तणघरं घरसंकमणं कयं तेहिं ॥१॥" तथा-पष्टिशतके
"सो न गुरू जुगपवरो, जस्स य वयणमि वट्टए भेउ । चिइ भवण सड्ढगाणं, साहारण दव्वमाईणं ॥१॥ गुरुणो भट्टा जाया, सड्ढे थुणिऊण लिंति दाणाई। दुन्निवि अमुणियसारा, दूसम समयंमि बुडंति ॥१॥ "
श्रीआवश्यकनियुक्तौ-- " जे बंभचेर भट्टा, पाए पाडंति बंभयारीणं । ते हुति टुंटमुंटा, बोही य सुदुल्लहा तेसि ॥१॥"
श्रीगच्छाचारप्रकीर्णके"अत्थेगे गोयमा पाणी, जे उम्मग्गपइटिए । गच्छंमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥११॥ कुलनाइ नगररजं, पयहिय जो तेसु कुणइ ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी, संजमसारेण निस्सारो ॥१॥ इत्तोणागयकाले, केई होहंति गोयमा सूरी। जेसिं नामग्गहणेवि, हुन्ज नियमेण पच्छित्तं ॥१॥"
ते सूरि केहा ॥ श्रीवीतराग भाषइ ते अन्यथा नहीं ॥ सूत्रमाहि बोल्यउं छइ, बिसहस्र वरससीम साधुनउ उदय पूजासत्कारनही ।। अनई ए घणा दीहाडाना मार्गना बोलणहार उदय पूजा लहइं छइ । तेहनइ जे गृहस्थ साधुकरी जाणइ छइ । तउ इम जाणियइ छइ, ते वीतरागना वचनमाहि नथी॥
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