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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१, मुं १४९
जाणिवी। सर्व कंदादिक भेद ३२ तथा श्रीपन्नवणा उपांगमाहि फूलनउ विशेष बोल्यउ छइ ॥ तथा च
गाथा-"पुप्फा जलया थलया, बिट बद्धाय नालबद्धाय। संखिज्जमसंखिज्जा, बोधव्वाणतजीवा य ॥१॥ जे केइ नालियाबद्धा, पुष्पा संखिज्जजीविया भणिया। निहया अणंत जीवा, जेया वण्णा तहाविहा ॥२॥" एहवा स्थावर जीक्कया, एहनइ संघट्टि केहवी वेदना थाइ ते कहइ छइ ।। गाथा-"वुडदं जज्जर थेरं, जो घायइ जमल मुठिणा तरुणो।
जारिसी तस्स वियणा, इगिदि संघटणे तारिसी"|| इसउं जाणी साधु छक्काय राखइ । यतः-श्रीदशवकालिकेगाथा-" पुढवी दग अगणि मारुय, तणरुक्खस्स बीयगा ।
तसाय पाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा ॥१॥ तेसिं अत्थण जोएण, निचं होअव्वयंसिया । मणसा कायवकेणं, एवं हवइ संजए" ॥२॥ इतिवचनात्
साधु जिहां साधुनइ वचनि सावध लागइ ते भाषा न बोलइ । साधुनउ वचन ते जेहनी विधि तथा जेहना फल साधु कहइ ते विधिवाद उपदेश, ते साधु करइ करावइ अनुमोदइ ॥ बीजा चरितानुवाद यथास्थितोपदेश सिद्धांत माहि घणाई छइ, ते तेणइ मार्गि जाणिवा । इणि कारणि चारित्रियइ सावध भाषा न बोलिवी ।। यतः-श्रीमहानिशीथे
“सावज्जणवज्जाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वुत्तुंपि तस्स न खमं, किमंगपुण देसणं काउं ॥१॥" तथा
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