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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं १३३ धमाधम्मवि मीसा, तिन्निय पक्खा वियाहिया एवं ।
एकारस ठाणाई, सुगुरुमुहाउ अ नायाई || २६६ ॥ पवयण अणुसारेणं, जहा य लिहियाइ संति तह चैत्र । गीयथा अणुहिह, काऊण पसायमेयाई || २६७ || जइ जाणह अविरुद्धं, ता सुपमाण करेह कारेह | इत्थवि किंचि विरुद्धे, मिच्छा मे दुकडं तस्स | | २६८॥ अन्नं च किंचित्रि पडि सेवतो, जिणुत्तमुस्सामेव मन्नतो । नियकारणं कहतो, विराहगो होइ नहु साहू || २६९ ॥ आउतो चत्तारिवि, भासाउ तहय भासमाणो य ।
आराहओय भणिओ, पन्नत्रणाए उवंगंमि ॥२७०॥ - एयाए वन्नियाए, दसाठाणंग - पमुह-सुत्ते ।
taarayer भणिया, जहहिउ तथ्य उवएसो ॥२७१॥ जम्हा नेव पवत्त, एएस विही जिणेहिं निद्दिहो ।
अरंतो एयाई, विराहगो नो मुणी होइ || २७२ || तथा च- नइउत्तरणुवएसो, जहङ्घिउ तव्बिही विहिवाओ । उत्तारो सावज्जो, उत्तर- विहीइ निरवज्जो || २७३॥ जइ नइसलिले न कुणइ, एगं पायं तहावि नहु दोसो |
अह जइथलंमि न कुणइ, पविसंतो ता महादोसो ॥ २७४॥ एवं वियारिकणं, गोयथ्या जं कहंति तं सच्चे ।
इत्थं जाणामि अहं, जहद्विउ एस उवएसो ॥ २७५॥ तुल्लाए किरियाए, छउमथ्थो केवलीय नइ सलिलं । जइ उत्तरंति तहविहु, उस्मुत्तं तह अहासुतं ॥ २७६ ||
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