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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ९७ इति औदयिकतिथ्यधिकारः ॥ समणाण सावयाण य, देसिय पशुहाण जाण पंच हें | पडकमणाणं किरिया, सरिसा सुत्ताणुसारेण || २०७|| श्रावकाणां प्रतिक्रमणे यो विशेषः स उच्यतेइरियं पडिकभित्ता, पडिलेहित्ताण धम्म उवगरणं । पुत्ती देहपमुहं पुणोवि इरियापडिकमणं || २०८ || सम्म जयणा करणे, तत्तो दाऊण दोखमासमणे । भयवं सामाइयवर्य, संदिस्सावेमि ठावेमि ॥ २०९ ॥ नवकार - भणण- पुर्व, सामाइय- दंडगं समुच्चरइ । आवस्य किरियाए, वेलं जाणित्त संपत्तं ॥ २२० ॥ किरियंतराल काले, पडिक्कर्म - ताण नथ्थि उववसिणं । तत्तो आसणणुन्ना, एयण मेयं तु निर(वे ) क्खं ॥ २११ ॥ काळंमि किज्जगाणी, सज्झाउ जिणमयंमि सुविसुद्धो । सझायरस अणुना, नध्य अकाले जिणंदाणं ॥ २१२ ॥ आसण सज्झायाणं, पच्छा किरियाई संभवो अधि । जड़ गीयथ्या भावं. एयं मन्नंति ता सव्वं (चं) | २१३॥ हुज्जा सुत्तविरुद्धं, ता मिच्छादुकर्ड हव । मज्यं एएण कारणेणं, दुवालसावत्त-वंदणयं ॥ २१४॥ दच्चा पच्चक्खाणं, किच्चा तो घेइयाइ वंदित्ता । आयरियाई साहू, ढाविय पकुणंति उस्सगं ॥ २१५ ॥ सेस साहु - सरिथ्यं, एमेव य राइयंमि नायव्वं । वयमुच्चरितु पच्छा, राईपच्छित - उस्सगं ॥ २१६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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