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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८८ स्तित्वयोः क्षणमात्रमध्येकस्मिन्वृत्तिरस्तीति भवताभ्युपगम्यते, यतो वध्यघातक भावरूपो विरोधस्तयोः कल्प्येत । यदि चैकस्मिंस्तयोर्वृत्तिरभ्युपगम्यते, तदा तयोस्तुल्यबलत्वान्न वध्यघातक - भावः ।। नापि सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, स चैकत्र कालभेदेन वर्तमानयोर्भवति, यथा आम्रफले श्यामतापीततयोः । उत्पद्यमाना हि पीतता पूर्वकालभाविनीं श्यामतां नाशयति । न हि तथाsस्तित्व नास्तित्वे पूर्वोत्तरकालभाविनी । यदि स्याताम् अस्तित्वकाले नास्तित्वाभावाज्जीवसतामात्रं सर्व प्राप्नुवत । नास्तित्वकाले चास्तित्वाभावात्तदाश्रयो बन्धमोक्षादिव्यवहारो विरोधमुपगच्छेत । सर्वथैवासतः पुनरात्मलाभाभावात्, सर्वथा च सतः पुनरभावप्राप्त्यनुपपत्तेर्नैतयोस्सहानवस्थानं युज्यते । तथास्तित्वनास्तित्वयोः प्रतिबध्यप्रतिबन्धक भावरूपविरोधोपि न सम्भवति । यथा-सति मणिरूपप्रतिबन्धके वह्निना दाहो न जायत इति मणिदाहयोः प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावो युक्तः, न हि तथाऽस्तित्वकाले नास्तित्वस्य प्रतिबन्धः, स्वरूपेणास्तित्वकालेपि पररूपादिना नास्तित्वस्य प्रतीतिसिद्धत्वात् इति ॥ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 7 1 और विरोध तीन प्रकारसे होता है । प्रथम वध्यघातकभावसे, अर्थात् एकके वध्य और दूसरेके घातक होने से विरोध होता है. दूसरा एकसाथ स्थिति न होनेसे, और तृतीय प्रतिवध्य प्रतिबन्धक भावसे । उनमेंसे प्रथम पक्षका विरोध सर्प नकुल तथा अभि और जल आदिके विषय में है । वह वध्य घातकका विरोध एक कालमें वर्तमान वध्य तथा घातक के संयोग होने पर होता है क्योंकि द्वित्व आदि संख्या के तुल्य संयोग भी अनेक के आश्रय में रहता है । और असंयुक्त नकुल सर्पका तथा असंयुक्त जल भी अनिका नाश नहीं कर सकता । यदि संयोग के विना ही घातक अपने वध्यका नाश करे तब तो सर्वत्र सर्प तथा अग्नि आदिका अभाव ही होजायगा इस हेतुसे संयोग होने पर उत्तर कालमें बलवान् निर्बलको बाधा करता है और आप तो एक वस्तुमें अस्तित्वकी क्षणमात्र भी स्थिति नहीं स्वीकार करते जिससे उनका वध्यघातकरूप विरोधकी कल्पना हो । और यदि एक पदार्थ में उनकी वृत्ति स्वीकार करो तो अस्तित्व नास्तित्वका समान बल होनेसे वध्यघातकभावसे विरोध भी नहीं हो सकता और एकसाथ स्थितिका जनावरूप विरोध भी नहीं है क्योंकि वह एक वस्तु कालभेदसे दोनों विद्यमान होने पर होता है जैसे आमके फल में श्यामता और पीतताका । क्योंकि पीतता को नष्ट करती है | और अस्तित्व तथा नास्तित्व श्यामता पीतताके होनेवाले नहीं है । और यदि - अस्तित्व नास्तित्व पूर्व तथा उत्तर कालभावी होते तो अस्तित्व कालमें नास्तित्वके अभाव से जीव सत्ता मात्रको सब पदार्थ प्राप्त होजायेंगे । ऐसे ही नास्तित्व कालमें अस्तित्वके अभावसे उसके आश्रयीभूत बन्ध मोक्ष आदि सम्पूर्ण व्यवहार विरोधको प्राप्त होजायगा । और सर्वथा असत्के अभाव अर्थात् नाशके अयुक्तः न होनेसे अस्तित्व और नास्तित्वके एक साथ स्थितिका अभाव होना युक्त उत्पन्न होती हुई श्यामता तुल्य पूर्वोत्तर काल में A नहीं है । इस रीति से अस्तित्व और नास्तित्वका प्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावरूप विरोधका For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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