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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवदत्तका शरीर पकाता है ऐसा प्रयोग होना चाहिये, यदि द्वितीय पक्ष है तो देवदत्तका आत्मा पकाता है ऐसा शब्दप्रयोग होना उचित है, और शरीरसहित देवदत्तका आत्मा पकाता है ऐसे प्रयोगके अभावसे तृतीय पक्ष भी युक्त नहीं है । इस रीतिसे पूर्वकथित तीनों प्रकारके प्रयोग न होनेमें पूर्वपूर्व प्रयोगका अभाव ही शरण है । इस प्रकार पूर्व २ प्रयोगके अनुकूल ही शब्द वा वाक्य प्रयोगोंकी प्रवृत्ति लोकमें दृष्ट है इस हेतुसे पदार्थसत्ताका आश्रय लेकर शब्दप्रयोगमें आक्षेप करना अयोग्य है। किञ्च-घटादौ वर्तमानः पररूपाभावो घटाद्भिन्नोऽभिन्नो वा ? यदि भिन्नस्तस्यापि परत्वातदभावस्तत्र कल्पनीयः । अन्यथा तस्य परत्वानुपपत्त्या घटादेः कथंचिदसद्रूपत्वासिद्धेः । तदभावकल्पनायां चानवस्था, तस्यापि परत्वात् । घटादिषु पररूपस्यातानवितानाकारस्याभावाभावपरिकल्पनायां तेषां घटत्वापत्तिश्च, निषेधद्वयेन प्रकृतरूपसिद्धेः । यद्यभिन्नस्तर्हि सिद्धं स्वस्मादभिन्नेन भावधर्मेण घटादौ सत्त्ववदभावधर्मेण तादृशेनासत्त्वमपि स्वीकरणीयमिति । और भी घट आदिमें पररूपका जो अभाव है वह घटसे भिन्न है; अथवा अभिन्न है ? यदि घटसे भिन्न है तव तो उसके भी पर होनेसे वहां उसके अभावहीकी कल्पना करनी चाहिये. और यदि ऐसा न मानो तो पररूपाभावके घटसे परत्व अयुक्त होनेसे घट आदिकी जो कथंचित् असत् रूपता अनेकान्त पक्षमें मानी जाती है उस असत् रूपताकी असिद्धि होगी। और पररूपाभाव की भी यदि अभाव कल्पना करो तो अनवस्था दोष आजायगा. क्योंकि वह अभाव भी पररूप ही है । और घट आदिमें आतानवितानाकार (पटादिकी रचना) स्वरूप पररूपके अभावाभावकी कल्पना करने पर वे सब घटरूप हो जायेंगे. क्योंकि दो निषेधसे प्रकृतरूपकी सिद्धि होती है. जैसे घटाभावाभाव घटस्वरूप होता है ऐसे ही घटमें पररूपाभावाभाव भी घटस्वरूप ही होजायगा और यदि पररूपाभाव घटसे अभिन्न है तो हमारा अभीष्ट सिद्ध होगया. क्योंकि अपनेले अभिन्न भाव धर्म आदिमें जैसे सत्त्वरूपता है ऐसे ही अपनेसे अभिन्न अभाव धर्मसे असत्त्वरूपता भी घट आदिमें स्वीकार करनी चाहिये। ननु-स्वरूपेण भाव एव पररूपेणाभावः पररूपेणाभाव एव च स्वरूपेण भाव इति भावाभावयोरेकत्र वस्तुनि भेदानावाद्वस्तुनः कुतस्तदुभयात्मकता, इति चेत् ; भावाभावापेक्षणीयस्य निमित्तस्य भेदादिति ब्रुमः । स्वद्रव्यादिकं हि निमित्तमपेक्ष्य भावप्रत्ययं जनयत्यर्थः, परद्रव्यादिकं चाभात्ययम्, इत्येकत्वद्वित्वादिसंख्यावदेकवस्तुनि भावाभावयोर्मेदः । नोकत्र द्रव्ये द्रव्यान्तामपेक्ष्य द्वित्वादिसंख्या प्रकाशमाना स्वात्ममात्रोपक्ष्यैकत्वसंख्यातोन्या न प्रतीयते । नार्थकत्वद्वित्वरूपोभयसंख्यातद्वतोभिन्नैव, द्रव्यस्यासंख्येयत्वप्रसंगात् । संख्यासमवायाद्रव्यय संख्येयत्वमिति तु न, कथंचित्तादात्म्यव्यतिरेकेण समवायासम्भवात् । तस्मात्सिद्धोअक्षणीयभेदात्संख्यावत्सत्त्वासत्त्वयोर्भेदः । भिन्नयोश्चानयोरेकवस्तुनि प्रतीयमानत्वा. स्को वरोधः । For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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