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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ विरोधः ॥ अस्तित्वस्याधिकरणमन्यन्नास्तित्वस्याधिकरणमन्यदित्यस्तित्वनास्तित्वयोवैयधिकरण्यम् । तच्च विभिन्नाधिकरणवृत्तित्वम् ।। येन रूपेणास्तित्वं येन च रूपेण नास्तित्वं तादृशरू. पयोरपि प्रत्येकमस्तित्वनास्तित्वात्मकत्वं वक्तव्यम् , तञ्च स्वरूपपररूपाभ्यां, तयोरपि प्रत्येकमस्तित्वनास्तित्वात्मकत्वं स्वरूपपररूपाभ्यामित्यनवस्था । अप्रामाणिकपदार्थपरम्परापरिकल्पनाविश्रान्त्यभावश्चानवस्थेत्युच्यते । येन रूपेण सत्त्वं तेन रूपेणासत्त्वस्यापि प्रसंगः, येन रूपेण चासत्त्वं तेन रूपेण सत्त्वस्यापि प्रसंगः, इति संकरः । “सर्वेषां युगपत्प्राप्तिस्संकरः ।" इत्यभिधानात् ॥ येन रूपेण सत्त्वं तेन रूपेणासत्त्वमेव स्यान्न तु सत्त्वं, येन रूपेण चासत्त्वं तेन सत्त्वमेव स्यान्नत्वसत्त्वम् , इति व्यतिकरः । “ परस्परविषयगमनं व्यतिकरः” इति वचनात् ।। सत्त्वासत्त्वात्मकत्वे च वस्तुन इदमित्थमेवेति निश्चेतुमशक्तेस्संशयः ॥ ततश्चानिश्चयरूपाऽप्रतिपत्तिः ॥ ततस्सत्त्वासत्त्वात्मनो वस्तुनोऽभावः ॥ इति ॥ कदाचित् यह कहो कि अनेकान्तवादमें विरोध आठ दोपोंका संभव है, जैसे एक पदार्थमें विधि तथा निषेधरूप अस्तित्व तथा नास्तित्वरूप धर्म संभव नहीं होसकते, क्योंकि शीत और उष्णके समान भाव और अभावका परस्पर विरोध है, विधिमुखसे प्रतीति (बोध ) का विषय होनेसे अस्तित्व तो भावरूप है और नजनित निषेधमुखसे बोधका विषय होनसे नास्तित्व अभावरूप है । जहां पर किसी पदार्थका अस्तित्व है वहां पर उसके नास्तित्वका विरोध है और जहां पर जिस पदार्थका नास्तित्व है वहां पर उसके अस्तित्वका विरोध है, इस रीतिसे जैन मतमें विरोध दोष है । अस्तित्वका अधिकरण अन्य होता है और नास्तित्वका अन्य होता है इस रीतिसे अस्तित्व नास्तित्वका वैयधिकरण्य है, और वैयधिकरण्य भिन्न २ अधिकरणमें वृत्तित्वरूप है, और इस मतमें अस्तित्व तथा नास्तित्व दोनो एक ही अधिकरणमें हैं इसलिये वैयधिकरण्य दोष है । तथा जिस रूपसे अस्तित्व तथा नास्तित्व रहते हैं उन दोनो रूपोंका प्रत्येकको अस्तित्व तथा नास्ति धरूप कहना. चाहिये, और वह अस्तित्व तथा नास्तित्व स्वरूप तथा पररूपसे होता है, और उन स्वरूप तथा पररूपमेसे प्रत्यकको अस्तित्व तथा नास्तित्वखरूप अन्य स्वरूप तथा पररूपस हा सकता है उनका भी दूसरे सनम तथा पररूपसे इस प्रकार अवस्था दोष भी है। कंगा । अप्रामाणिक पदार्थोकी परंपरासे जो कल्पना है उस कल्पनाके विश्रामके अभावको ही अनवस्था कहते हैं । और जिस रूपसे सत्ता है उसी रूपसे असत्ताकी भी प्राप्ति है ऐसे ही जिस रूपसे असत्त्व है उसीरूपसे सत्त्वकी प्राप्ति है क्योंकि सत्त्व असत्त्व स्थितिमें एक ही पदार्थका स्वरूप तथा पररूपसे स्वरूपका कुछ भी परिवर्तन नहीं होता । और एक कालमेंही एक वस्तु सब धर्मोकी प्राप्ति ही संकर दोष है" । ऐसा अन्यत्र कहा गया है । तथा जिस रूपसे सत्त्व है उस रूपसे असत्त्व भी रहेगा न कि सत्त्व, और जिस रूपसे असत्त्व १.पृथक् २ अधिकरणमें वृत्तिता अर्थात् रहनेको वैयधिकरण्य कहते हैं जैसे घटमें घटत्वका अस्तित्व है और आस्तित्व घटमें. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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