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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ यद्यपि द्वितीयपक्ष एकस्यैव वृक्षपदस्यानेकवृक्षबोधकत्वं प्राप्तम् । तथाप्यनेकधर्मावच्छिनार्थबोधकत्वमेकपदस्य नास्तीति नियमः । एवं च वृक्षा इति बहुवचनान्तेनापि वृक्षपदेन वृक्षरूपैकधर्मावच्छिन्नस्यैव बोधो नान्यधर्मावच्छिन्नस्य । तथा चास्त्यादिपदेनाप्यस्तित्वादि रूपैकधर्मावच्छिन्नस्य बोधः सम्भवति, न तु नास्तित्वादिधर्मान्तरावच्छिन्नस्येति ॥ । यद्यपि द्वितीय पक्षमें अर्थात् जैनेन्द्रके अनुसार द्विवचनान्त बहुवचनान्त वृक्षादि शब्द ही खभावसे द्वित्व और बहुत्व संख्या सहित वृक्ष आदिके बोधक हैं यह वार्ता प्राप्त है तथापि अनेक धर्मसे अवच्छिन्न अर्थ बोधकता एक पदको नहीं है, इस रीतिसे ' वृक्षौ' तथा 'वृक्षाः' इत्यादि द्विवचनान्त तथा बहुवचनान्त वृक्षपदसे वृक्षत्वरूप जो एक धर्म उस धर्मसे अवच्छिन्न एक वृक्षरूपका ही भान होता है न कि किसी अन्य धर्मसे अवच्छिन्न. पदार्थका 'इसी प्रकारसे' अस्ति आदि पदसे भी अस्तित्वरूप एक धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थका ही एक कालमें ज्ञान संभव है न कि नास्तित्व आदि अन्य धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थका । ननु-वृक्षा इति प्रत्ययवती प्रकृतिः पदम् , "सुप्तिङन्तं पदम्” इति वचनात् । तथा चवृक्षा इति बहुवचनान्तेन बहुत्ववृक्षत्वरूपानेकधर्मावच्छिन्नस्य बोधादेकपदस्यानेकधर्मावच्छिन्नबोधकत्वं नास्तीति नियमस्य भंगप्रसंगः । तदुक्तम्-" अनेकमेकं. च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । ” इति । __प्रश्नः-'वृक्षाः' यहांपर 'जस्' प्रत्यय सहित जो प्रकृति वृक्ष है उसको पद कहते हैं, सुबन्त तथा तिङन्तकी पर्दै संज्ञा होती है, ऐसा जैनेन्द्र तथा पाणिनि ऋषिका भी वचन है, तब " वृक्षाः" इस बहुवचनान्त पदसे बहुत्व तथा वृक्षत्वरूप जो अनेक धर्म, उस धर्मसे अवच्छिन्न वृक्ष अर्थका ज्ञान होनेसे एक पदको अनेक धर्म सहित अर्थ बोधकता नहीं है इस नियमका भंग प्राप्त हुआ ऐसा अन्यत्र कहा भी है; एक तथा अनेक अर्थ भी पदका वाच्य होता है जैसे “वृक्षाः” यहां प्रत्यय सहित वृक्षरूप प्रकृतिसे बहुत संख्या युक्त वृक्षरूप अर्थ ? " इति चेत्सत्यम् ,-एकपदस्य प्रधानतयाऽनेकधर्मावच्छिन्नबोधकत्वं नास्तीति नियमस्योक्तत्वात् । प्रकृते च प्रथमतो वृक्षशब्दो वृक्षत्वरूपजात्यवच्छिन्नं द्रव्यं बोधयति । ततो लिंगं संख्यां चेति शाब्दबोधः क्रमेणैव जायते। लोप हुये शब्दोंके अर्थको कहता है। ऐसा एकशेष माननेवाले वैयाकरणोंका सिद्धान्त है. ६ जो नाम अथवा धातुके आगे लगाया जाता है जैसे सु औ जस् ति तः आदि. ७ जिसके आगे प्रत्यय आते हैं जैसे वृक्ष भू आदि मूल भाग. ८ सम्बन्ध. १ वृक्षको अन्य पदार्थसे पृथक् करनेवाले वृक्षख धर्मसहित यही अर्थ जहां २ अवच्छिन्न शब्द आवे वा आया हो सर्वत्र समझ लेना. २ नामकी प्रत्यय सु औ जस् आदिसे सुप् तक । जिनके अन्तमें सुप् वह सुबन्त कहाता है. ३ ति, तस् अन्ति आदिसे यहि वहिङ् तक धातुको प्रत्यय जिसके अन्तमें हो वह तिङन्त कहाता है. ४ सुप्तिङन्तं पदम् ।१।४।१४। पाणिनीयके सूत्रसे पदसंज्ञा होती है. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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